ग़ज़ल
झुक गयी तलवार जब खुद हौसले हुक्काम की।
फिर निहत्थे हाथ से उम्मीद क्या अंजाम की।।
सोच की रंजिश हकीकी शौकिया जज़्बात से,
शौक में लुटती रही ख़लकत यहाँ इलहाम की।
चोर की दाढ़ी न कोई एक भी तिनका रखे,
हर ख़बर में छा गईं बस सुर्खियां हज्जाम की।
जो गिनाते गलतियाँ उनसे यही इक प्रश्न है,
कर्मठी से क्यों हुईं हर गलतियाँ इतमाम की।
मनु हृदय की माँद में ऐसी मशक्कत कर रहा,
जो कभी मिलता नहीं है खोज उस गुमनाम की।
बन रहा बहुरूपिया महफ़िल मुताबिक आदमी,
कर्म कारक सब नदारत इक़्तिज़ा परिणाम की।
नव सदी की हर खुशी मिथलेश फीकी पड़ रही,
याद में गुजरी सदी तस्वीर है गुलफ़ाम की।