ग़ज़ल
इधर मुरझाए हैं पत्ते, उधर खिलती कली भी है ।
कहीं है खुरदरी धरती, कहीं जाकर लिपी भी है ।
हमारे प्यार का आँगन उखड़ता-सा दिखे है जो,
इसी पर रोज़ गौरैया फुदकती औ’ पली भी है ।
हजारों रास्ते हैं नफ़रतों के इस समय टेढ़े,
मगर इक रास्ता सीधा मुहब्बत का अभी भी है ।
निराशा की चहलकदमी बराबर आँख के भीतर,
मगर उम्मीद से रौशन शमा दिल की जली भी है ।
दिखे रफ्तार मौतों की सड़क पै रोज मुस्काती,
मगर फुटपाथ पै भूखी, सिसकती जिंदगी भी है ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी