ग़ज़ल 7
देख कर उनको गिरफ़्त-ए-ग़म में भी हँसता हुआ
अपने आँसू पोंछ डाले हमने ये अच्छा हुआ
तर-ब-तर था कल मेरा दिल आज ये सहरा हुआ
तुम गए हो जब से है ये वक़्त भी ठहरा हुआ
चल दिए दामन छुड़ा कर और ये सोचा नहीं
ज़ख़्म जो उस पल दिया था और भी गहरा हुआ
हो गए बाग़ी, कभी मजनूँ, कभी फ़रहाद भी
आशिक़ों की धड़कनों पर जब कभी पहरा हुआ
आज फिर हम सो न पाए बिन तेरे तन्हाई में
याद आया वक़्त जो था साथ में गुज़रा हुआ
क्या क़लम भी साथ दिल के वो चुरा कर ले गया
क्यूँ मेरे अश’आर का हर हर्फ़ है बिखरा हुआ
मंदिरों में, मस्जिदों में, सज्दा करना था उसे
वो अभागा लग रहा है वक़्त का मारा हुआ
मुल्क़ की ख़ातिर शहादत पाए है जो भी जवान
वो अमर हो जाता है ये हक़ में है लिख्खा हुआ
चीख़ सुनकर द्रौपदी की तख़्त भी हिलता नहीं
अंधा है कानून या फिर हुक्मराँ बहरा हुआ
वक़्त की साज़िश जहाँ में कोई समझा ही नहीं
कल की चिंता में ‘शिखा’ हर शख़्स है सहमा हुआ