ग़ज़ल
चुभ रहे हैं रोज़ काँटे पाँव में ।
ठूँठ की छाया बची है गाँव में ।
साग है बेस्वाद दालें ख़ुश्क हैं,
ऐंठते हैं पेट सबके आँव में ।
धूप की तो बात ही अब छोड़िए,
सूखता है आदमी अब छाँव में ।
पीर सुनता कौन है किससे कहें ?
फँस रहे हैं सब परस्पर दाँव में ।
बेवज़ह चिचया रहे हैं पेड़ पर,
अपशकुन की सूचना है काँव में ।
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।