ग़ज़ल
राग बसंती सुंदर बजता साँझ लगे सिंदूरी है।
माँ वसुधा को महकाने की अब तैयारी पूरी है।।
शोभा बगिया की बन आई सुंदर अद्भुत न्यारी सी-
सच है यह पर मुझ को लगती बिन सरताज अधूरी है।
कलियाँ शरमा कर हैं खिलती इत उत भौंरे भी उड़ते-
साजन मिलने को आजाओ ऐसी क्या मजबूरी है।
धरती से नभ भी मिलता है दूर क्षितिज में झुक झुकके-
हिरणों सा चंचल मन भागे ढूँढ रहा कस्तूरी है।
राह निहारे बैठे कब से अब संध्या आने वाली-
चाहे मन तुमसे जब मिलना क्यों बढ़ जाती दूरी है।
गोदाम्बरी नेगी
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