ग़ज़ल
उम्रभर वो यू कुछ करता रहा,
धूल आंखो पर थी,और शीशा साफ़ करता रहा।
ख़्वाब बन कर मेरे दिल में बस गया था,
और, मैं नादान अपनी नींदे उड़ाता रहा।
हर किसी में तेरे जैसी बात नहीं,
लेकिन फिर भी हर एक चेहरे में तुझे ही तरास्ता रहा।
ख़्वाब और हक़ीक़त दोनों अलग हिस्से हैं ज़िंदगी के,
लेकिन मैं बेवकूफी कर दोनो को मिलाता रहा।
कहने को ये सिर्फ दो शब्द है,उम्मीद और हसरत
अरे इन्हीं को रख कर तो मैं खुद को चलाता रहा।
सोचा मैं भी कूद जाऊ समंदर की लहरों में,
फिर तेरा चेहरा देख खुद को बचाता रहा।
सोचा हरा ही दूं तुझे ए जिंदगी के खेल,
फिर तेरे हार के डर से तुझको ही जीताता रहा।