ग़ज़ल (जिन्दग़ी भी खूब है……)
रदीफ़-आरो
काफिया-की तरह
जिन्दग़ी भी खूब है खिलें ग़ुलजारो की तरह।
छूट रहे हाथ सें पल टूटे से तारों की तरह।
खामोशी साधे था जो कभी दिल-ए-नादां।
दौड़ रही धड़कने अब बिजली की रफ्तारों की तरह।
बयार-ए-इश्क़ फिज़ाओं में कुछ इस तरह घुली।
खिल गया दिल का चमन इसमें बहारों की तरह।
फँसाना -ए-उल्फत तुमसे कहना तो था।
हुए खामोश तुम्हे देंख गुनहगारों की तरह।
सुधा भारद्वाज
विकासनगर उत्तराखण्ड़