ग़ज़ल
ये इज़हारे उल्फ़त सनम करते करते
न हो देर मुझको समझते समझते
नहीं थाम लेते जो तुम हाथ मेरा
सदी बीत जाती सँभलते सँभलते
बहार आ गयी तेरे आने से दिलबर
चमन बच गया फिर उजड़ते उजड़ते
ज़ुनूने मुहब्बत को झुलसा ही देगा
ये दरिया-ए-आतिश उतरते उतरते
कोई साथ दे तन्हा इस ज़िन्दगी को
बहुत थक गया हूँ बसर करते करते
किसी तौर से तुम नहीं मेरे क़ाबिल
कहा उसने तेवर बदलते बदलते
दवा दे दो “प्रीतम” मेरे दर्दे दिल की
कहीं दम न निकले तड़पते तड़पते
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)