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10 Jun 2023 · 1 min read

ग़ज़ल 22

कभी सब छीन लेता हूँ कभी नेमत लुटाता हूँ
मुझे सब वक़्त कहते हैं मैं उँगली पर नचाता हूँ

कोई मुट्ठी में जकड़े तो फिसल जाऊँ मैं पारे सा
ज़माने में भला मैं कब किसी के हाथ आता हूँ

न मैं काबे में रहता हूँ, न काशी धाम है मेरा
दिलों में नेक बंदे के मैं अपना घर बसाता हूँ

अकेला छोड़ कर मुझ को यकायक चल दिए सारे
मगर रब आ ही जाता है उसे जब भी बुलाता हूँ

बिछड़ जाऊँ अगर तुम से अंधेरा छा ही जाएगा
मगर नूर-ए-मुहब्बत से मैं जुल्मत को मिटाता हूँ

क़सम खा कर मुकर जाना तेरी आदत पुरानी है
क़सम से जब क़सम खाऊँ मैं शिद्दत से निभाता हूँ

ये सूरज चाँद की यारी बड़ी अद्भुत पहेली है
कहें दोनों ही आपस में कि तुम आओ मैं जाता हूँ

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