ग़ज़ल 21
नफ़रत की आग जलने लगी तेरे शहर में
ये बात आज खलने लगी तेरे शहर में
जो आश्ना थे कल मेंरे सब गुम कहाँ हुए
हिजरत की चाह पलने लगी तेरे शहर में
मरने का मारने का ये क्या दौर आ गया
जीने की आस टलने लगी तेरे शहर में
मेरा यहाँ से ठौर-ठिकाना उजड़ गया
आँधी अजीब चलने लगी तेरे शहर में
क़ुदरत ख़फ़ा हुई न कहीं लाए ज़लज़ला
करवट ज़मीं बदलने लगी तेरे शहर में
काली घटा की क़ैद में वो कब तलक रहे
अब चाँदनी मचलने लगी तेरे शहर में
हर दिल में कौन भरने लगा दुश्मनी ‘शिखा’
शफ़क़त भी हाथ मलने लगी तेरे शहर में