ग़ज़ल 12
क्यूँ तीरगी सी छाई चराग़ों के दरमियान
क्या हुस्न छुप गया है नक़ाबों के दरमियान
नासूर बन गया कई सालों के दरमियान
इक जख़्म जाने कैसा है छालों के दरमियान
वो नींद में भी आँख से ओझल न हो जनाब
उसको बसा लिया है निगाहों के दरमियान
शिद्दत है प्यास में तो सरोवर के जा क़रीब
कब तिश्नगी मिटी है सराबों के दरमियान
औलाद पे अगर जो मुसीबत न होती आज
क्यूँ माँ का हाथ रुकता निवालों के दरमियान
यूँ ही जनाब हमको ये ओहदा नहीं नसीब
सालों है सर खपाया किताबों के दरमियान
जो ग़ौर से पढ़ोगे सवालों को बार बार
मिल जाएगा जवाब सवालों के दरमियान
साहिल को तोड़ने की हिमाक़त किये बग़ैर
लहरें उछल रही हैं किनारों के दरमियान
मिलता नहीं है कुछ भी तरद्दुद किये बग़ैर
काँटे भरे पड़े हैं गुलाबों के दरमियान
शायद ‘शिखा’ सनम ने मुझे याद है किया
हिचकी तभी है आई निवालों के दरमियान