ग़ज़ल
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नहीं है होश ख़ुद का अब तेरा दीदार होते ही
हुए मग़रूर तेरी ग़ज़ल का अश’आर होते ही।
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तुझे देखा तुझे चाहा तिरी ही की इबादत है
न कुछ बाक़ी रही है इल्तिज़ा इतिबार होते ही।
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अकेले रह गए हम सामने दिखती नहीं मंज़िल ,
बिछड़ यूँ ही गए सब बस मिरे लाचार होते ही।
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निगाहें इस तरह बदलीं नज़रिया ही बदल डाला,
हुआ ये ताज़पोशी का तिरा इक़रार होते ही।
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सनाशाई हुई इस से अकेलापन मिरा साथी,
बरसती हैं निगाहें पास ग़म गुस्सार होते ही।
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अजी हम ख़ास से कब आम बन चले इल्म ही न हुआ,
मगर वह दबदबा जाता रहा बाज़ार होते ही।
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बहारें फिर से आएंगी ख़ियाबां फिर जवां होगा,
लबों पे फिर हँसी होगी गुले गुलज़ार होते ही।
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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