ग़ज़ल 1
कहीं पे सहरा में आब-ए-दरिया बहा रहा है वही ख़ुदा है
जो दश्त में भी गुलों की चादर बिछा रहा है वही ख़ुदा है
कमी नहीं है जहाँ में आकर भटकने वालों की इस जहाँ में
जो भूले भटकों को राह-ए-मंज़िल दिखा रहा है वही ख़ुदा है
ये चाँद, सूरज, बहार, पतझड़, हैं क़ायदों से जुड़े हुए सब
सही तरीके निज़ाम-ए-आलम चला रहा है वही ख़ुदा है
सभी के दिल में बसा हुआ है, सही गलत क्या बताए सब को
जो नूर अपना सभी के अंदर जला रहा है वही ख़ुदा है
हमारा क्या है, तुम्हारा क्या है, दिया हुआ है उसी का सब कुछ
कि इस हक़ीक़त से रू-ब-रू जो करा रहा है वही ख़ुदा है
दिखाई देता नहीं वो हमको, सभी पे उसकी नज़र है लेकिन
कि जो मुहब्बत सभी पे अपनी लुटा रहा है वही ख़ुदा है
नसीब में सब लिखा हुआ है, किसे है आना कि कब है जाना
मियाद पूरी जो हो गई तो बुला रहा है वही ख़ुदा है
वही बिगाड़े, वही सँवारे, ‘शिखा’ भरोसा उसी पे रखना
कि जो रुला कर भी फिर से तुझको हँसा रहा है वही ख़ुदा है