ग़ज़ल- वहीं इक शख़्स दुनिया में
वही इक शख़्स दुनिया में ख़ुदाया था मेरा सबकुछ
वही जिसके लिए मैंने लुटाया था मेरा सबकुछ
भले ही वो नहीं था कोई बाज़ी फिर भी तो मैंने
उसे अपना बनाने में लगाया था मेरा सबकुछ
जब उसकी राह में बढ़ने लगी तादाद काटों की
तले पा उसके मैंने भी बिछाया था मेरा सबकुछ
धरूंगा मैं कभी इल्ज़ाम उसकी चोर आंखों पर
जिन्होंने इक नज़र में ही चुराया था मेरा सबकुछ
मुझे ता-ज़िंदगी ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त ग़म मिलते
मगर सैलाब से उसने बचाया था मेरा सबकुछ
जॉनी अहमद ‘क़ैस’