ग़ज़ल/नज़्म – ये हर दिन और हर रात हमारी होगी
ये हर दिन और हर रात हमारी होगी,
चुपचाप बैठे-बैठे बात भी सारी होगी।
भरभरा कर गिरेगी वो जब मेरी बाहों में,
एक दूसरे में सिमटने की तैयारी होगी।
पता नहीं होगा कि कौन किसमें खोया है,
आगोश में दोनों की ही गिरफ्तारी होगी।
ये अम्बर, ये जहां, आँखों में झूम रहे होंगे,
मयखानों से कहीं ज़्यादा ही ख़ुमारी होगी।
गर्म साँसें टकराएंगी तन-बदन पिंघलेगा,
साँसों में, धड़कनों में भी तेजतर्रारी होगी।
बेहिसाब अंगड़ाइयाँ आरज़ूओं की टूटेंगी,
इश्क़ फ़कीरी में जीने की तलबगारी होगी।
लगता है कि तू बस ख्वाबों में ही मसरूफ़ है ‘अनिल’
कब तेरे इज़हार-ए-प्यार की बेशुमारी होगी।
(मसरूफ़ = व्यस्त, काम में लगा हुआ, मशगूल, संलग्न, जो ख़र्च किया गया हो)
(बेशुमार = असंख्य, अनगिनत)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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