ग़ज़ल/नज़्म – न जाने किस क़दर भरी थी जीने की आरज़ू उसमें
न जाने किस क़दर भरी थी जीने की आरज़ू उसमें,
कि वो उम्र भर मरता रहा किसी के साथ जीने के लिए।
बोझिल क़दमों से चढ़ी होंगी मयकदे की सीढ़ियाँ उसने,
ख़ुशी से भला कौन जाता है मयखाने में पीने के लिए।
कतरा-कतरा सा सूख गया वो एक इसी आरज़ू में,
ये धरती तरस रही हो जैसे आसमाँ के पसीने के लिए।
वक्त अपनी मज़ाक में उकेरता रहा झुर्रियाँ उस पर,
और वो इन्तज़ार में बैठा रहा उन पर पैबंद सीने के लिए।
बहुत सख्त है, बहुत नरम है चाहतों का ये राज यहाँ,
इसमें जुनून से मरना पड़ता है कुछ ही पल जीने के लिए।
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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