ग़ज़ल- आज पछता रहा हूॅं तुझको सितारा करके…
आज पछता रहा हूॅं तुझको सितारा करके।
अब बसर होता नहीं साथ गुज़ारा करके।।
जीत लेना मुझे बस एक इशारा करके।
छोड़ती रंगे धनक आंख हजारा करके।।
आग बुझ जाएगी चिंगारी बुझेगी कैसे।
रख ही देगी ये मुझे फिर से शरारा करके।।
हार कर बैठना तो भूल तुम्हारी होगी।
जीत सकता है तू कोशिश भी दोबारा करके।।
लौट आ घर में मिलेंगी सुकूं की दो रोटी।
क्यों भटकता है तू अपनों से किनारा करके।।
ये तज़ुर्बे तेरी दौलत पे बहुत भारी हैं।
कब घटी ‘कल्प’ की क़ीमत भी ख़सारा करके।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’