ग़ज़ल।कवि और कविता
। २१२ २१२ २१२ २१२।
चोट खाकर कभी मुस्कुराना पड़ा
दर्द को भूल कर गीत गाना पड़ा
ध्यान से तो सभी ने सुना है यहां
बहरे’ को भी यूँ’ कविता सुनाना पड़ा
बात आयी वतन पर कभी तो हमें
ओज को भी यहां गुनगुनाना पड़ा
जब ज़माना हमें यूँ बताया निडर
फर्ज़ कवि का मुझे तब निभाना पड़ा
कविता’ के मर्म को रख सलामत यहां
फिर ‘शिवा’ को ये कविता सजाना पड़ा
~©अभिषेक श्रीवास्तव “शिवाजी”
शहडोल मध्यप्रदेश