गहरा राज़
ना जाने कैसा होता होगा वो जहां,
खो जाते हैं इंसान कैसे जाकर वहां ।
ना राह का पता न मंजिल का ठिकाना ,
आखिर अंजाने सफर का मुकाम है कहां ?
अपनो से सारे बंधन तोड़के ,मुंह मोड़के ,
ना जाने कहां बसा लेते हैं नया आशियां ।
ना खत ना पैगाम का सिलसिला रहता है,
आखिर कैसे करें अपना हाल ए दिल बयां।
रह रह कर दिल में कसक उठती है हमारे ,
नजरें तलाशती है जब कभी उनके निशान ।
आहिस्ता आहिस्ता वक्त भर ही ,देगा जख्म ,
बस इतनी सी तो है हमारी इंतजार ए इंतेहा ।
ये कजा अपने आप में एक गहरा राज़ है कोई ,
नहीं जान सकता “ए अनु” इसे कोई इंसान ।