गलियों का शोर
शहर में बहुत सी गलियां थी
और उन गलियों में बहुत सा शोर था
मैं न चाहकर भी उनसे गुजरता
मुझे जाना उस ओर था
वक़्त गुजरता
मगर एक पल के लिए ठहर भी जाता
न जाने क्यों
बन्द कमरे में साँसों का अपना शोर था
मैं खींचता खुद को आहिस्ता आहिस्ता
मगर जकड़ता जाता उसी ओर था
प्रद्युम्न अरोठिया