गणितज्ञ-जोतिषचार्य आर्यभट्ट व संविधान निर्माता अंबेडकर की जयन्ती
13 अप्रैल 476 ईस्वी.आर्यभट (अथवा आर्यभट्ट) का जन्म माना जाता है तो 14 अप्रैल, 1891 ईस्वी. को बाबासाहब आम्बेडकर का जन्म हुआ। दोनों प्रखर बुद्धि के स्वामी थे। दोनों की जयन्ती अप्रैल माह में एक साथ धूमधाम से मनाई जाती है। इस आलेख के माध्यम से जाने थोड़ा सा दोनों के विषय में कुछ-कुछ!
गुप्त काल में ही महान गणितज्ञ आर्यभट का जन्म माना जाता है। इसी अनुमान के आधार पर उनकी जन्म तिथि 13 अप्रैल 476 ईस्वी. और मृत्यु 550 ईस्वी. में मानी जाती है। इनके जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग दक्षिण देश के ‘कुसुमपुर’ को इनका स्थान बताते हैं तथा कुछ लोग ‘अश्मकपुर बताते हैं। इसी सब जानकरियों के आधार पर विश्वप्रसिद्ध अर्न्तराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती मनाई थी। आर्यभट्ट के समय में “मगध का विश्वविद्यालय” पूरे विश्व में ज्ञान का मुख्य केन्द्रबिन्दू था। जहाँ विदेशी छात्र भी शिक्षा अर्जन के लिए आते थे।
हम सौभाग्यशाली हैं कि आज पन्द्रह सौ वर्ष बीत जाने के बावज़ूद आर्यभट जी द्वारा रचे तीन ग्रंथ अभी भी उपलब्ध हैं। “दशगीतिका”, “आर्यभटीय” व “तंत्र”, किन्तु अनेक विद्वानों के अनुसार उनके द्वारा एक और ग्रंथ रचने की पुष्टि होती है—”आर्यभट सिद्धांत”। जिसके मात्र चौंतीस श्लोक ही अब उपलब्ध हैं। आर्यभट के इस महान ग्रंथ का सातवीं शताब्दी तक व्यापक उपयोग होने के प्रमाण मिले हैं। उसके पश्चात कालान्तर में इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया? यह एक रहस्य ही बना हुआ है। शायद इसका एक कारण इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा समय-समय पर हुए हमले, जिनमें भारतवर्ष में मौज़ूद अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों को नष्ट करना! सदियों तक हिन्दू संस्कृति पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चोट। जिसकी पुष्टि मुस्लिम इतिहासकारों के ग्रन्थों में मिलती है। जैसे—धार्मिक (मन्दिरों का विध्वन्स, मस्जिदों का बलात निर्माण व ज़बरन धर्म परिवर्तन करवाना), राजनैतिक (मुस्लिम शासन में बड़े पदों पर हिन्दुओं को न भर्ती करना), आर्थिक (जज़िया आदि तीर्थ कर लेना) व सामाजिक (हिन्दुओं को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझना, उनके तीज-त्योहारों को महत्व न देना। हर जगह उपेक्षित करना-रखना आदि)…. ख़ैर, यहाँ यह दर्शाना महज़ धार्मिक विद्वेष के कारण नहीं है, बल्कि इस भेदभाव पूर्ण आचरण की आड़ में महान हिन्दू संस्कृति अनेक शताब्दियों तक कैसे नष्ट-भ्रष्ट होती रही? जिसमें अनेक महान ग्रन्थों का विलुप्त होना एक कारण हो सकता है!
“आर्यभटीय” नामक ग्रन्थ उनका रचा एक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ है, जिसमें वर्गमूलक, घनमूलक, समान्तर श्रेणी व विभिन्न प्रकार के समीकरणों का उत्कृष्ट वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में मात्र तीन पृष्ठों के समा सकने वाले तैंतीस श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त के अलावा, पाँच पृष्ठों में पिचत्तर श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त व इसके हेतु यन्त्रों का भी निरूपण भी किया गया है। आचार्य आर्यभट ने अपने छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थितकर, गागर में सागर को समेटने का महत्वपूर्ण कार्य किया है! जो देशियों और विदेशियों के लिए आज तक शोध का विषय बना हुआ है।
विश्व सदैव आर्यभट का ऋणी रहेगा। अपनी प्रमुख कृति “आर्यभटीय” के माध्यम से उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के सम्मुख गणित और खगोल विज्ञान के अनेक रहस्यों को खोला है, जिसे मौज़ूदा भारतीय शिक्षा प्रणाली में “गणित साहित्य” के विषय में आज भी बड़े पैमाने पर उद्धृत किया जाता है। “आर्यभटीय” के गणितीय भाग के माध्यम से हम ‘अंकगणित’ (Arithmetic), ‘बीजगणित’ (Algebra), ‘सरल त्रिकोणमिति’ (Simple Trigonometry) व ‘गोलीय त्रिकोणमिति’ (Spherical Trigonometry) को सहजता से समझ लेते हैं। अतः इसमें आर्यभट जी ने सतत भिन्न (Continuous Fractions), द्विघात समीकरण (Quadratic Equations), घात श्रृंखला के योग (Sums of Power Series) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) को भी शामिल किया है।
आर्यभट ही वो प्रथम गणितज्ञ ज्योतिर्विद् हैं, जिनका ग्रंथ “आर्यभटीय-तंत्र” हमें ज्ञान की संजीवनी के रूप में प्राप्त होता है। जिसमें ज्योतिष का समस्त क्रमबद्ध इतिहास हमें प्राप्त होता है। इनका रचा ज्योतिष ग्रन्थ, अब तक के उपलब्ध संस्कृत ग्रंथों में सबसे प्राचीन है। इनके ग्रन्थ में दशगीतिका, गणित, कालक्रिया तथा गोल नाम वाले “चार पाद” हैं। इसी ग्रन्थ में सूर्य तथा तारों के स्थिर होने के व पृथ्वी के घूमने के कारण दिन और रात होने का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही सबसे पहले सूर्य ग्रहण तथा चंद्र ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों की विस्तृत व्याख्या की और वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल आदि गणितीय विधियों का महत्वपूर्ण विवेचन किया। जिसके द्वारा आज वर्तमान में हम कई कठिन प्रश्न सहजता से हल करते हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि आर्यभट्ट के सिद्धांत गणित व ज्योतिष के विषय में सर्वाधिक मान्य हैं।
इनका “आर्य-सिद्धांत”, नामक ग्रन्थ खगोलीय गणनाओं पर किया गया सर्वोत्तम कार्य था, जो अब लुप्त हो चुका है! यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के आलेखों के माध्यम से प्राप्त होती है! तो कुछ बाद की सदियों में समय-समय पर उभरे गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा प्राप्त होती है! जिनमें मुख्य रूप से आचार्य “ब्रह्मगुप्त” तथा आचार्य “भास्कर” शामिल हैं। जान पड़ता है कि उनके ये कृत्य प्राचीन सूर्य सिद्धांत पर ही आधारित हैं और “आर्यभटीय” के सूर्योदय की अपेक्षा, मध्यरात्रि दिवस गणना का उपयोग इसमें किया गया है। जिसमें कई खगोलीय उपकरणों की जानकारी शामिल है, उदाहरणार्थ—नोमोन (शंकु-यन्त्र; धूपघड़ी की सुई या दंड संबंधी), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), मुख्यतः यह कोणमापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र/चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और जहाँ कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- “धनुषाकार” व “बेलनाकार” (Arched and cylindrical) उपस्थित हैं।
इनका “आर्य-सिद्धांत”, नामक ग्रन्थ खगोलीय गणनाओं पर किया गया सर्वोत्तम कार्य था, जो अब लुप्त हो चुका है! यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के आलेखों के माध्यम से प्राप्त होती है! तो कुछ बाद की सदियों में समय-समय पर उभरे गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा प्राप्त होती है! जिनमें मुख्य रूप से आचार्य “ब्रह्मगुप्त” तथा आचार्य “भास्कर” शामिल हैं। जान पड़ता है कि उनके ये कृत्य प्राचीन सूर्य सिद्धांत पर ही आधारित हैं और “आर्यभटीय” के सूर्योदय की अपेक्षा, मध्यरात्रि दिवस गणना का उपयोग इसमें किया गया है। जिसमें कई खगोलीय उपकरणों की जानकारी शामिल है, उदाहरणार्थ—नोमोन (शंकु-यन्त्र; धूपघड़ी की सुई या दंड संबंधी), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), मुख्यतः यह कोणमापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र/चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और जहाँ कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- “धनुषाकार” व “बेलनाकार” (Arched and cylindrical) उपस्थित हैं।
आर्यभट का तीसरा ग्रन्थ जो हमें अरबी भाषा से अनुवाद के रूप में प्राप्त होता है, “अलन्त्फ़” अथवा “अलनन्फ़” है। यह आर्यभट के ग्रन्थ का संस्कृत से अरबी भाषा के मात्र अनुवाद रूप में अपना दावा प्रस्तुत करता है, अभी भी इसका संस्कृत नाम किसी को ज्ञात नहीं है। संभवतः नौवी सदी के अभिलेखन में, यह अरबी-फारसी विद्वान और महत्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा पुनः रचा गया है।
आइये अब कुछ बातें इस आलेख में उपस्थित दूसरी विभूति आंबेडकर जी की बातें भी कर लीं जाए। 14 अप्रैल, 1891 ईस्वी. के दिन जन्मे बाबासाहब आम्बेडकर एक महान विद्वान, समाज सुधारक और दलितों के मसीहा थे। वर्ष 1990 ईस्वी. में उन्हें “भारत रत्न” यानी भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया। वह न केवल एक कुशल अर्थशास्त्री थे, वरन महान राजनीतिज्ञ व समाज सुधारक भी थे। उन्होंने आजीवन दलितों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी! उन्हें हिन्दू समाज में ईश्वर का अभिशाप “अछूत” समझा जाता था। ऊँच जातियों के मध्य जिसे ईश्वर ने निकृष्ट कार्यों के लिए ही बनाया है। उन्होंने इस अमानवीय अन्याय व अस्पृश्यता, भेदभाव के विरुद्ध अभियान चलाया। जिस कारण उन्हें दलित समाज में भगवान की तरह पूजा जाता है। आप स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री रहे और भारतीय संविधान के जनक भी।
रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं व अंतिम संतान थे। अंबेडकर का परिवार कबीर पंथ को माननेवाला मराठी मूूल का था तथा वर्तमान महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में “आंबडवे” गाँव का था। वे हिंदू में महार जाति से संबंध रखते थे, जो “अछूत” कही जाती थी और इस कारण उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव सहन करना पड़ता था। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर, जो बालक भीमराव से विशेष स्नेह रखते थे, ने ही भीम के नाम से ‘आंबडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आम्बेडकर’ उपनाम जोड़ दिया। जो आज उनकी विश्वव्यापी पहचान है। भीमराव को लड़ने का हौसला और “अंबेडकर” जाति उनके प्राथमिक शिक्षा गुरु ने दी थी। जो एक ब्राह्मण थे, ताकि अंबेडर जी को अपने शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कोई दिक्क्त न आये। उन्होंने अपनी मेहनत और लग्न से कोलंबिया तथा लंदन विश्वविद्यालय से “अर्थशास्त्र” में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। अपने प्रारम्भिक जीवन में वह एक अर्थशास्त्री, प्रोफेसर और नामचीन वकील थे। इसके उपरान्त वे राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हुए। वह भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार व प्रसार वार्ता में शामिल हुए। उन्होंने आजीवन राजनीतिक अधिकारों तथा अपने दलित वर्ग हेतु सामाजिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी।
अप्रैल 1906 ईस्वी. में, जब भीमराव लगभग 15 वर्ष आयु के थे, तो नौ बरस की रमाबाई से उनकी शादी कराई गई थी। तब वे पांचवी अंग्रेजी कक्षा पढ रहे थे। उन दिनों भारत में बाल-विवाह का प्रचलन था। आम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की लंबी बीमारी के बाद 1935 ईस्वी. में निधन हो गया। 1940 ईस्वी. के दशक के अंत में भारतीय संविधान के मसौदे को पूरा करने के बाद, वह नींद की कमी से पीड़ित थे, उनके पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द (neuropathic pain) था, और इंसुलिन और होम्योपैथिक दवायें ले रहे थे। वह इलाज के लिए मुम्बई (Bombay) आ गए, और वहां एक खूबसूरत डॉ. शारदा कबीर से उनकी भेंट हुई, और पूर्व पत्नी की मृत्यु के बारह वर्ष पश्चात् “शारदा” के साथ उन्होंने 15 अप्रैल 1948 ईस्वी. को नई दिल्ली में अपने घर पर ही शादी कर ली। डॉक्टरों ने ही उन्हें सुझाव दिया था—एक ऐसे जीवनसाथी के लिए, जो अच्छा खाना पकाने वाली हो व उनकी देखभाल करने के लिए चिकित्सा ज्ञान हो। आम्बेडकर जी से शारदा जी ने शादी के बाद सविता आम्बेडकर नाम अपनाया और उनके बाकी जीवन में उनकी अच्छे से देखभाल की। सविता आम्बेडकर, जिन्हें ‘माई’ या ‘माइसाहेब’ कहा जाता था, का 29 मई 2003 को नई दिल्ली के मेहरौली में 93 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया।
उन्होंने हिंदू धर्म-समाज में समता व सम्मान प्राप्त करने के लिए अनेक भगीरत प्रयत्न किए, परंतु सवर्ण हिंदुओं का ह्रदय उनके लिए कभी भी परिवर्तित न हुआ। इससे दुखी व बुरी तरह आहत होकर आम्बेडकर ने आख़िरकार बौद्ध धर्म अपना लिया और अन्य दलितों को भी यह रास्ता अपनाने के लिए कहा! 6 दिसंबर, 1956 ईस्वी को यह महानआत्मा परलोक सिधार गई।