गज़ल
मुस्कान उसके मन की उलझन बता रही है ।
गम को समेटे भीतर खुशियां जता रही है ।।
कड़वाहटों के घूंट वो पी चुकी कुछ इतने ।
जो भी मिली तिक्तता सब सहती जा रही है ॥
न जाने कितनी उम्र सब तन्हाईयों में काटी ।
सन्नाटे भी बोलते है समझाये जा रही है ॥
जोड़े थे दर्द के हिसाब वक्त की पेशगी को ।
ये आंधियों की साजिश पन्ने उड़ा रही है ॥
संभाला वजूद उसने थी रेत की तपिश जब ।
फिर आज क्यों तुहिन पिघलाये जा रही है ?