गजल सगीर
कभी सपना कभी शीशा कभी दिल टूट जाता है।
उसे जितना मनाता हूं वह उतना रूठ जाता है।
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यहां जम्हूरियत के नाम पर हर बार चुनते हैं।
मगर जो रहनुमा बनता है हमको लूट जाता है।
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तुम्हें अफसोस है कश्ती तुम्हारी बच नहीं पाई।
यहां साहिल पे आकर भी सफीना डूब जाता है।
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किसी मुफलिस किसी नादार से जरदार के रिश्ते।
बहुत मजबूत रिश्तो का भी दामन छूट जाता है।
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जो अपने मुल्को मिल्लत के लिए हर जंग लड़ता है।
सगीर जो मुल्क के खातिर ही खुद को भूल जाता है