गजलकार रघुनंदन किशोर “शौक” साहब का स्मरण
गजलकार रघुनंदन किशोर “शौक” साहब का स्मरण
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पुस्तक का नाम / / चन्द गजलियातःआली मरतवत जनाब रघुनंद किशोर शौक रामपुरी//
संग्रह कर्ता एवं प्रकाशक नरेन्द्र किशोर “इब्ने शौक” //मुद्रक: सहकारी युग प्रिंटिंग प्रेस ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)/ प्रकाशन वर्ष: मार्च 19 87 //कुल पृष्ठ संख्या 84
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समीक्षक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99 97 61 54 51
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चंद गजलियात श्री नरेन्द्र किशोर “इब्ने शौक” द्वारा प्रकाशित अपने पूज्य पिताजी श्री रघुनंदन किशोर” शौक” साहब की गजलों का संग्रह है। ऐसे पुत्र कम ही होते हैं, जो अपने पिता के काव्य को उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित कराएँ और पुस्तक के रूप में उसे जन- जन तक पहुँचाने का कार्य करें। एक पुत्र द्वारा अपने पिता को इससे बेहतर तरीके से कोई श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।
इस पुस्तक के माध्यम से रघुनंदन किशोर “शौक” साहब और उनकी उत्कृष्ट लेखन- कला पाठकों के सामने आती है और निस्संदेह उनकी लेखनी पर मंत्रमुग्ध हो जाने का मन करता है । शौक साहब की मृत्यु को 27 वर्ष बीत चुके थे , जब उनका यह संग्रह उनके सुपुत्र श्री नरेंद्र किशोर जी ने प्रकाशित कराया। वास्तव में काव्य का आनंद अमर होता है और उस पर समय की सीमाओं का प्रभाव नहीं होता। यह एक अच्छा कार्य हुआ कि शौक साहब की रचनाएँ पुस्तक के रूप में सामने आ गईं और इस प्रकार सदा- सदा के लिए वह पाठकों को सुलभ हो गईं।
श्री नरेंद्र किशोर इब्ने शौक की पुस्तकःः-
स्वर्गीय मुन्नीलाल जी की दो पुत्रियों में से एक पुत्री का विवाह श्री रघुनंदन किशोर शौक साहब से हुआ था ।आप वकील और प्रसिद्ध शायर थे । आप के पुत्र श्री नरेंद्र किशोर इब्ने शौक ने अपने पिताजी की मृत्यु के पश्चात उनकी उर्दू शायरी के कुछ अंश चंद गजलियात नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किए थे । इस पुस्तक में थोड़ा-सा परिचय मुन्नी लाल जी की धर्मशाला का भी मिलता है । आप लिखते हैं ” मुन्नी लाल जी जिनकी धर्मशाला है और जिसके पास में भगवान राधा वल्लभ जी यवन शासित काल में श्री वृंदावन वासी हित हरिवंश गौरव गोस्वामी जी की विधि साधना से आसीन हुए। संभवत उस काल में यह रामपुर नगर का दूसरा सार्वजनिक मंदिर था । प्रथम मंदिर शिवालय था जो मंदिरवाली गली में स्थित है । इसका शिलान्यास एवं निर्माण नवाब कल्बे अली खाँ ने पं दत्तराम जी के अनुरोध से कराया था । मेरी मातृ श्री इन्हीं धनकुबेर मुन्नी लाल जी की कनिष्ठा पुत्री थीं। इसी धर्मशाला के पास पिताजी का निवास 1943 से 1960 तक अपने श्वसुर गृह में रहा । उस काल में रचित उर्दू कविताओं का संग्रह महेंद्र प्रसाद जी सस्नेह मुद्रित कर रहे हैं ।”
दरअसल मेरी मुलाकात श्री नरेंद्र किशोर जी से 1986 में हुई थी । उन्हीं दिनों मैंने “रामपुर के रत्न” पुस्तक भी लिखी थी, जिसे श्री महेंद्र जी ने सहकारी युग से छापी थी । जब आप हमारी दुकान पर आए थे तब उसकी एक प्रति आपको भेंट की गई थी। इस तरह मेरा और श्री नरेंद्र किशोर जी का आत्मीय परिचय स्थापित हुआ था । इसी के आधार पर नरेंद्र किशोर जी की पुस्तक 1987 में सहकारी युग प्रेस से महेंद्र जी ने प्रकाशित की थी। इसके प्राक्कथन में श्री नरेंद्र किशोर जी ने मेरे साथ मुलाकात का उल्लेख इस प्रकार किया है :-
“18 दिसंबर 1986 को मैं स्वनाम धन्य श्री राम प्रकाश जी सर्राफ की दुकान पर उनसे मिलने गया था । वहाँ उनके होनहार चिरंजीव के दर्शन हुए और रामपुर के रत्न की भेंट मिली ।
रवि का प्रकाश पाते ही सुप्त कलम का जाग्रत प्रस्फुटित होना नैसर्गिक क्रिया है । उनके पवित्र चरण चिन्हों पर चलने की इच्छा मैंने अपने 40 वर्ष पुराने मित्र श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी (सहकारी युग प्रेस) से प्रकट की । जो उन्होंने सहर्ष वरदान स्वरुप मुझी को लौटा दी। बंबई लौट कर 25 दिसंबर तक कै.श्री रघुनंद किशोर शौक रामपुरी की 54 कविताओं की हस्तलिखित प्रति महेंद्र जी को भेज दी । ”
इस तरह श्री मुन्नी लाल जी के काव्य-प्रेमी परिवार से आत्मीयता बढ़ी और धर्मशाला का इतिहास भी थोड़ा ही सही लेकिन मुद्रित रूप में उपलब्ध हो गया।
अदालत के आदेश पर 1962 से पिताजी ने जीवन-पर्यंत दिसंबर 2006 तक मुन्नी लाल धर्मशाला के क्रियाकलापों में अपना समय अर्पित किया। समय ,जो सबसे अधिक मूल्यवान होता है और जिस से बढ़कर इस संसार में और कुछ भी नहीं हो सकता।
जब रामपुर में मुन्नीलाल धर्मशाला के उत्तराधिकारियों में कुछ विवाद हुआ और एक समिति धर्मशाला के संचालन के लिए गठित होने का मामला सिविल एंड सेशन जज महोदय रामपुर की अदालत में गया तो मुकदमा संख्या दो, वर्ष 1958 ईस्वी में मुन्नीलाल धर्मशाला का अध्यक्ष पिताजी श्री राम प्रकाश जी को बनाए जाने के प्रस्ताव को प्रस्तुत करते हुए न्यायालय के समक्ष इन शब्दों में लिखा गया :-
“यह कि इंतजाम के लिए श्री सतीश चंद्र गुप्ता एडवोकेट निवासी रामपुर व लाला राम प्रकाश पुत्र दत्तक लाला सुंदर लाल व देवी दयाल पुत्र श्री राम स्वरूप निवासी रामपुर को ट्रस्टी मुकर्रर करती है ,जिसके अध्यक्ष लाला राम प्रकाश जी होंगे।
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जीवन परिचय
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श्री रघुनंदन किशोर “शौक” साहब रामपुर की जानी- मानी हस्ती थे। आपका जन्म 23 जून 1894 को रामपुर में हुआ तथा मृत्यु 14 जून 1960 को रामपुर में ही हुई । इस तरह आप रामपुर की विभूति थे और आपका लेखन रामपुर की एक विशेष उपलब्धि कहा जा सकता है।
रामपुर रजा लाइब्रेरी फेसबुक पेज 22 अप्रैल 2020 के अनुसार :-
“आप 23 जून 1894 ई० को रामपुर में पैदा हुये। वकालत पास करने के बाद रामपुर हाईकोर्ट में जज नियुक्त हुए। बलवा कोतवाली 19 जून 1934 ई० के मुकदमे की सुनवाई के लिये विशेष अदालत बनाई गई थी। रघुनन्दन किशोर शौक़ इस विशेष अदालत के गज़ट 14 जुलाई 1934 ई० द्वारा जज बनाए गये| 5 दिसम्बर 1934 ई० को रियासत के स्टेट एडवोकेट नियुक्त हुए। रियासत की तरक्क़ी, सुव्यवस्था और सुविधा के लिये नवाब साहब ने दिसम्बर 1934 ई० में एक स्टेट काउंसिल मनोनीत की। श्री रघुनन्दन किशोर शौक़ इस काउंसिल में नामांकित हुए। 1935 ईं० में वे विधान निर्माता सभा रियासत रामपुर के मेम्बर बनाए गये। इसके बाद रियासत के लॉ मेम्बर अर्थात कानून मंत्री बने और स्टेट विधायिका 1946 ई० के सदस्य रहे । रियासत के विलयन के बाद रामपुर में वकालत शुरू की। बार एसोसिएशन रामपुर के कई बार अध्यक्ष हुए।”
रघुनंदन किशोर “शौक “साहब के संबंध में उल्लेखनीय बात यह रही कि आप रामपुर के प्रसिद्ध समाजसेवी श्री मुन्नी लाल जी के दामाद थे । श्री मुन्नी लाल जी अपनी बनवाई हुई धर्मशाला के कारण रामपुर भर में प्रसिद्ध रहे, बल्कि कहना चाहिए कि अमर हो गए । मुन्नी लाल जी की धर्मशाला मिस्टन गंज के निकट चाह इन्छा राम में स्थित है । इसी के अन्तर्गत एक राधाकृष्ण मंदिर भी है , जिसके संबंध में श्री नरेंद्र किशोर जी ने लिखा है कि यहां “भगवान राधावल्लभ जी यवन शासित काल में श्री वृंदावन वासी हित हरिवंश गौरव गोस्वामी जी की विधि साधना से आसीन हुए ।संभवतः उस काल में यह रामपुर नगर का दूसरा सार्वजनिक मंदिर था । प्रथम मंदिर शिवालय था , जो मंदिरवाली गली में स्थित है। इसका शिलान्यास एवं निर्माण नवाब कल्ब अली खान ने पंडित दत्तराम जी के अनुरोध से कराया था ।”
मुन्नीलाल धर्मशाला राधा कृष्ण मंदिर के द्वार पर एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर मिती माघ बदी एक संवत 1990 विक्रमी अंकित है।(इतिहासकार रमेश कुमार जैन से प्राप्त जानकारी के अनुसार इसका अर्थ 1 जनवरी 1934 सोमवार हुआ।)
इस प्रकार मुन्नीलाल धर्मशाला तथा राधाकृष्ण मंदिर के संस्थापक श्री मुन्नी लाल जी के आप दामाद थे । यहीं पर आपका निवास 1943 से 1960 तक रहा।
श्री रघुनंदन किशोर शौक साहब की रचनाएं देने से पहले नरेंद्र किशोर जी द्वारा अपने गुरु आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति की सुंदर रचना भी पुस्तक में दी गई है । आचार्य बृहस्पति ऐसा व्यक्तित्व रहा कि जो उनके संपर्क में आया, वह उनका प्रशंसक बन गया। स्वाभिमान से ओतप्रोत राष्ट्रभक्ति से भरी इस कविता के कुछ अंश देखिएः-
भैरव गर्जन से गुंजित दिग् मंडल का कोना- कोना है /
रुधिर चाहिए आततायियों का इतिहासों को धोना है //
सिद्ध करो तुम वर्तमान में जीत सदा है हार नहीं है/ अरे प्रार्थना से झुकने वाला निष्ठुर संसार नहीं है//
कुत्ते भी हैं झूठे टुकड़ों को खाकर इतराने वाले /
दूर-दूर से भूखे मृगराजों का मुँह बितराने वाले/
वे क्या जानें भोजन उनका वेतन है आहार नहीं है/ अरे प्रार्थना से झुकने वाला निष्ठुर संसार नहीं है//
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शौक साहब के काव्य का स्वर
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रघुनंदन किशोर “शौक” साहब के काव्य का मुख्य स्वर सामाजिक यथार्थ को सामने लाना है। आपने जीवन को निकट से देखा है और उसके व्यवहारिक पक्ष पर जोर देकर लिखा है । आपकी अधिकाँश रचनाएँ जीवन के आनन्द और उसके सकारात्मक पक्ष से संबंधित हैं । आपने शराब ,साकी और मयखाने को प्रतीक के रूप में जीवन के साथ जोड़ते हुए बहुत सी गजलें और बहुत से शेर लिखे हैं । इनमें आपका काव्य कौशल प्रगट हो रहा है । आपने शेख और बिरहमन जैसे शब्दों को भी अपने काव्य में स्थान दिया है तथा इसके माध्यम से धार्मिक आडंबर और वाह्य क्रियाकलापों की निरर्थकता को व्यक्त किया है
आपने रोजमर्रा की जिंदगी में छोटे-छोटे अनुभवों को भी अपने काव्य का आधार बनाया और उसे पाठकों तक पहुंचाया। इस दृष्टि से बहुत सादगी से कही गयी आपकी एक गजल के निम्नलिखित शेर उद्धृत किए जा सकते हैं :-
नासिहा मुफ्त ही उलझा है तू दीवाने से
बाज आया है न आएगा वह समझाने से
अपना-अपना है पराया है पराया आखिर
मुझसे नाराज हो क्यों गैर के बहकाने से
जितनी काव्य कुशलता के साथ अपनों से मित्रता की दौड़ में बँध जाने के लिए बात कही गई है , वह अद्भुत है यानि मुझे किसी गैर ने बहका दिया था और तुम तो मेरे अपने हो, इसलिए अपनापन न छोड़ो। यह बात कितनी सादगी से कुशलतापूर्वक शायर ने कह दी। एक और शेर देखिए:-
मत कहो शेखो बिरहमन की मुकामी खबरें
दोनों नाकाम फिरे काबा ओ बुतखाने से
यहाँ पर भी शायर ने इसी तथ्य की ओर इंगित किया है कि जो वाह्य उपासना में लगे रहते हैं , वह लोग ईश्वर को और उसके मूल स्वरूप को शायद ही ग्रहण कर पाते हैं। रघुनंदन किशोर “शौक” साहब की शायरी का मुख्य केंद्र जीवन की उस मस्ती से है जिसे उन्होंने साकी और शराब शब्दों के माध्यम से प्रकट किया है । देखिए :-
यह भी है रीत कोई “शौक “कि हर दम है नमाज
काम शीशे से न सागर से न पैमाने से ( प्रष्ठ 4 )
जीवन की बारीकियों को समझने के बाद आपने क्या खूब कहा है :-
न अपना है कोई न कोई पराया
वही है मुसीबत में जो काम आए ( पृष्ठ 11 )
ईश्वर पर विश्वास की दृढ़ता को दर्शाने वाला एक शेर ऐसा है जो इस बात को प्रकट करता है कि शायर को इस बात का पूरा भरोसा है कि जब तक ईश्वर उसके साथ है, उसे किसी की शत्रुता का कोई डर नहीं हो सकता। देखिए :-
बंदे की अदावत से तुझे खौफ है क्या “शौक”
मौला का तेरे हाल पर जब तक कि करम है
( पृष्ठ 14 )
इस बात को हालांकि बहुत से शायरों ने अपने-अपने अंदाज में लिखा है लेकिन शराब की बजाए साकी की निगाहों से पीकर मस्त होने की भावना को जिस तरह शौक साहब ने लिखा है, वह प्रशंसा के योग्य है:-
साकी तेरी निगाह को देखा है मस्त हूँ
तेरी कसम से एक भी कतरा पिया नहीं
( पृष्ठ 24 )
जीवन का आनंद लेने और उसी आनंद की अनुभूति में जीवन का सार समझने वाली बहुत सी काव्य सामग्री शौक साहब के संग्रह में है । इसी के कुछ नमूने देखिए:-
ये माना हमने वाइज जिंदगानी अपनी फानी है
मगर तौबा के दिन हैं दूर अभी दौरे जवानी है
(पृष्ठ 43 )
इश्के बुताँ में उम्र गुजारी जनाबे शौक
सच कहिए आप था यही पैमाने जिंदगी
( पृष्ठ 45 )
किसी शोख पर दिल फिदा हो गया
बुरा हो गया या भला हो गया
(पृष्ठ 16)
हर आदमी के लिए जब तक कविता जिंदगी की राह दिखाने वाली एक रोशनी नहीं बन जाती , उसका कोई महत्व नहीं है। कविता वही है जो जीवन में काम आए ।और इसी कसौटी पर शौक साहब का एक शेर बहुत उपयोगी और मार्गदर्शक कहा जा सकता है :-
है ये उम्मीद पहुँच जाएंगे मंजिल के करीब
राह में ठोकरें खा-खा के संभल जाने से
( प्रष्ठ 4)
पुस्तक में शौक साहब के सुपुत्र नरेंद्र किशोर “इब्ने शौक ” की भी कुछ कविताएं हैं , जिनको निसंदेह विचार और शिल्प की कसौटी पर श्रेष्ठता के स्तर पर रखा जा सकता है । पिता के पद चिन्हों पर चलते हुए उनके काव्य कौशल को आत्मसात करने की इच्छा पुत्र के लिए सर्वथा उचित है। इसीलिए शौक साहब के सुपुत्र ने अपना उपनाम” इब्ने शौक” ठीक ही रखा है। श्री नरेंद्र किशोर “इब्ने शौक” के उत्तम काव्य कौशल का एक नमूना उनकी एक गजल के कुछ शेर प्रकट कर रहे हैं :-
शीशे में ढ़ाली हिम्मतो सच्चाई की शराब
अब चोर डाकुओं का मेरे दिल में डर नहीं
बन्दा हूँ नेक बन्दों का मजलूम का वकील दौलत परस्त रहजनों का राहबर नहीं
निकला है आफताब अलस्सुबह इब्ने शौक
रातों के डाकुओं से कोई अब खतर नहीं
(प्रष्ठ 59 )
यह ऊँचे दर्जे के विचार हैं जो आदर्शों से भरे हुए हैं । इनमें “शराब” शब्द का उच्च मानसिकता के साथ प्रयोग इस बात को दर्शा रहा है कि पुत्र ने पिता के न केवल पद चिन्हों का अनुसरण किया है बल्कि वह और भी आगे चला गया है। पुस्तक को प्रकाशित हुए लंबा समय बीत चुका है ,लेकिन इतिहास में यह पुस्तक इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण है कि रामपुर (उत्तर प्रदेश ) में उर्दू के क्षेत्र में जिन महानुभावों का ऊँचा योगदान रहा है और उस योगदान को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने का अनुकरणीय कार्य हुआ है, उसमें श्री रघुनंदन किशोर “शौक” साहब का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाएगा। उर्दू के कठिन शब्द अगर हिंदी -अनुवाद के साथ पुस्तक में जोड़ दिए जाते तो पुस्तक की उपादेयता और भी बढ़ जाती।