गंगा के अस्तित्व में
बाढ़ कोई भी हो,
कैसी भी हो,
अपनी दुर्गन्ध और गन्दगी,
बिखेर ही जाती है….!
वैसे ही,
कुछ पल, कुछ लम्हें,
अनगिनत रिश्ते,
अजनवी लोग,
अनजाने रास्तों पर,
कई मोड़ों पर,
जीवन के इस लम्बे सफर में,
अपने चिन्ह छोड़ गए…..!
मेरे ‘माही’…!
तेरी रहमत जो बरसी,
बहा ले गयी सभी कचरा,
धूल मिटटी,
कर गयी पावन,
हिमालय की गोद से उतरती,
माँ गंगा की ,
झरती निश्छल निर्मल लहरों सा….!
समा गयी,
गंगा के अस्तित्व में,
ज़िन्दगी का ,
रंग-ढंग ही बदल गया…!
चाल बदल गयी,
ढाल बदल गयी,
बिखरे अरमानों की,
माल सँभल गयी…!
खिल गया चेहरा,
महकने लगा गुलशन,
सज गए बन्दनवार ,
जगमगा दिया सारा आलम…!
चली आयीं ,
झूमती गाती नाचती सभी बहारें,
कर सोलह श्रृंगार ,
चाँद सितारों से जड़ी
चूनर उड़ा,
बिठा दिया दिशाओं के बने ,
मनमोहक मण्डप में…!
बजने लगे ढोल मृदंग
गूँजने लगी शहनाई…!
तभी ‘माही’,
तू अपनी मुहब्बत का,
सुधा रस बिखेरता चला आया…!
पर्वत शाखों सी फैली,
अपनी भुजाओं का हार ,
गले में डाल,
सुरमयी भोर की सजती संवरती ,
रवि की लालिमा को,
सजा दिया मेरी,
बिखरी घनी काली घटाओं के मध्य,
और ले गया,
इस दुनिया से परे,
अपने अलग इक जहान में…!
©डॉ० प्रतिभा- ‘माही’ पंचकूला