गंगाजल
पावन पुनीत गंगाजल
बहता था जो छल-छल।
धारा का उच्छल प्रवाह
बहता था अविरल।
जिसके दर्शन से,
जिसके मज्जन से
हो जाता था मन
अकलुष और निर्मल।
युगों से मानव आस्था
का रहा कर्म स्थल।
दूषित हो रहा है
प्रतिक्षण प्रतिपल।
धीमा होता जाता है,
उसका मधुर कल-कल।
बनता जाता है
अंतहीन दलदल।
देवनदी मंदाकिनी लेकर
मनुज की कलुष थाती।
कैसे अक्षुण्ण रख पाती
विशुद्ध उर-पुण्य थाती?
बन रही है वह निरन्तर
स्वघाती और परघाती।
हमारा स्वर्णिम प्रतीक
क्या बन जाएगा अतीत?
जीवन से मृत्यु तक का संबल
पवित्र धरोहर गंगाजल।
समय रहते-रहते हम
इसे दूषित होने से बचाएं।
यह लुप्त ना होने पाए
अन्यथा इसकी पावनता
की रह जाएंगी
सिर्फ कथाएँ, सिर्फ कथाएँ।
–प्रतिभा आर्य
अलवर (राजस्थान)