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5 Jan 2018 · 1 min read

खुद की आग बुझा लेता

अपनों के शहर में हैं अपना नहीं मिलता।
बहार को ज्यों चमन का पता नहीं मिलता।।

बुझ जाते हैं दीवारों पर जलते दीये।
जब हवाओं का प्यार फलता नहीं मिलता।।

गलती लाख करे इंसान पर माने नहीं।
इससे बड़ा बेशर्म खलता नहीं मिलता।।

अपने घर में सब रिस्ते निभाता है यहाँ।
बहार मर्द के सिवा रिस्ता नहीं मिलता।।

दोगलापन कब तक हावी रहेगा यारों।
क्यों इंसानियत का ही रस्ता नहीं मिलता।।

जब तक मैं से हम न हो सकेंगे दावा है।
ख़ुशी से मनुज जीवन हँसता नहीं मिलता।।

और की मूर्खता पर हँसे अपनी छिपाए।
तभी हरपल चेहरा खिलता नहीं मिलता।।

प्रीतम खुद की आग बुझा लेता अगर यार।
दूसरों का घर तुझे जलता नहीं मिलता।।

राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
***********************
मात्राएँ…24-23

Language: Hindi
1 Like · 562 Views
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