खिल के कीचड़ में भी वो सुथरा रहा
06/08/2017
आज़ की हासिल
ग़ज़ल
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उम्र भर हमको यही शिकवा रहा
चाँद से रुख़ पर ये क्यूँ परदा रहा
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कर न पाया है मदद कोई मेरी
बस दुखों का शह्र में चर्चा रहा
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बाग़ बिज़ली गिरी कुछ इस तरह
फूल पत्ती शाख़ सब बिख़रा रहा
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बदनसीबी तीरग़ी दुश्वारियाँ
दर्द ये सब कल्ब में पलता रहा
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याद आते जब मुझे गुज़रे वो दिन
बस लिखे ख़त आपके पढ़ता रहा
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हो न ये बदनाम मेरी जिन्दगी
फ़र्ज़ सारे मैं अदा करता रहा
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तीरग़ी मिट जाए तेरी इसलिये
मैं दिया बनकर सदा जलता रहा
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ख़ार तो हिस्से में मेरे आ गये
बस गुलों पर उसका ही कब्जा रहा
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आज़ का नेता भुला कर फ़र्ज़ को
वो सदा कुर्सी से ही चिपका रहा
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तिश्नग़ी मिट जाएगी इक दिन मेरी
ख़ाब दिल में मैं यही बुनता रहा
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वस्ल को जिनके मैं तरसा उम्र भर
वो रक़ीबों से मगर मिलता है रहा
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देखिए साहिब कँवल की सादगी
खिलके कीचड़ मे भी वो सुथरा रहा
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हो गई वो गैर की जब सामने देख कर ये हाथ मैं मलता रहा
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फूल तुमको दे दिया “प्रीतम” सभी
खुद मगर काँटों पे ही चलता रहा
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)