ख़्वाहिशों को कहाँ मिलता, कोई मुक़म्मल ठिकाना है।
ख़्वाहिशों को कहाँ मिलता, कोई मुक़म्मल ठिकाना है,
अब बस अजनबी राहों पर, कहीं दूर निकल जाना है।
समंदर ने साहिलों से, तोड़ा हर रिश्ता पुराना है,
अब तो इसकी शांत गहराई हीं, मेरा अंतिम ठिकाना है।
बारिश की बूंदों को, तेरी यादों की खुशबू को फैलाना है,
और तेरे ना होने के एहसास से, मेरी पलकों को भींगना है।
शहर की इस भीड़ के, अपनेपन में सब बेगाना है,
अब नए शहर की तन्हाई में, खुद को गुमाकर दिखाना है।
शाम की मज़बूरी है, कि उसे रात में ढलकर समाना है,
पर ये रात के अँधेरे हीं तो, मुझे देते सुकूं का नजराना है।
अब आदत कोई नई लगे, इस पर हँसता दिल ये दीवाना है,
जो मुमकिन हीं नहीं, इस बात पर वक़्त क्यों गंवाना है।
दुआएं कितनी भी माँगूँ पर, बीते लम्हों को लौट कर कहाँ आना है,
अब तो उन लम्हों की कसक को, हर पल में मुझे तड़पाना है।
जन्मों की इन दूरियों को, जाने खुदा को अब कैसे मिटाना है,
पर असर इश्क़ का तेरा ऐसा है, जिसमें इस ज़िन्दगी को तो गुजर हीं जाना है।