ख़ुद्दार बन रहे हैं पर लँगड़ा रहा ज़मीर है
ख़ुद्दार बन रहे हैं पर लँगड़ा रहा ज़मीर है
एक तरफ़ है भूख और ग़रीबी की ज़ंजीर है ।
कोशिश जितनी कर लो पर आख़िर तो तक़दीर है
ज़िन्दगी झुका दे तब कौन राजा, कौन फ़क़ीर है।
ज़रूरत और ज़मीर के बीच बारीक़ सी लकीर है
हारना नहीं, कर ले जो हो सके तदबीर है।
लड़ती रहे हालात से वो साँस कैसी वीर है
पीछे से जो वार हुए अपनो के ही तीर हैं।
चोट खा कर भी हँसे वो शख़्स कितना अमीर है
बिन उफ़्फ़ किये ही मिट गया क़ुर्बानी की तहरीर है।