खजुराहो
शीर्षक” खजुराहो”
मेरे कंकाल में चिपकी है
कविताओं की एक
पुरानी पांडुलिपि
जिस में मैंने लिखी है
वृक्ष के केश में फँसे हुए
तारों की कहानी
ख्वाब और ख्वाहिशों में
लड़खड़ाती वफाओं को लेकर
खत्म हो चुके प्रेम की तलाश में
नासमझ खजुराहो की नर्तकियाँ
नजर नहीं मिला पाती खुद से
कैसे समझाऊँ उन्हें
इस गुफा के संगीत और
अंधकार के बीच में
समय ने मुझे भी छला है
शाम से उड़ने वाली
मुट्ठी भर धूल
नाचती रहती है देर रात तक
फुसफुसाती है कुछ
मैंने उसे सुन लिया
वह एक सवाल था
“क्या किसी पुरुष ने दी है
कभी अग्निपरीक्षा?”
शिला में लिपटे असंख्य स्वप्न
तड़पते हैं, तड़पते हैं
एक झंकार के लिए
अपने अस्तित्व को
जाहिर करने के लिये
देखते हैं मुझे टकटकी लगाए
हाँ, यह सच तो है
प्राण हो या निष्प्राण
नारी को ही तो ढूँढनी पड़ती है
अपनी अस्मिता
मगर मैं तो हूँ एक अवशेष
इतिहास के खंडहरों में
कैसे कहूँ तुम्हें
भाषा के अलावा
नहीं कोई और हथियार
मेरे पास।
पारमिता षड़गीं