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6 Mar 2023 · 45 min read

खंड 6

साहित्यकार डॉ०रामबली मिश्र ‘हरिहरपुरी’
का
विश्व हिंदी शब्द कोश

खण्ड-6

1- हरिहरपुरी के दोहे

जागत-सोवत हर समय, रख दुनिया का ख्याल।
आँखों में पानी रहे, जानो सबका हाल।।

रोना दुखियों के लिये, बन सहयोगी नित्य।
भरसक सेवा भाव से, बनो दीप्त आदित्य।।

चमको सूरज की तरह, अक्ष स्वयं पर घूम।
सारी ऊर्जा सौंप कर,जग के दिल को चूम।।

मानवता के मंत्र का, करते रहना जाप।
मन से घूमो विश्व में, एक निमिष में माप।।

स्थापित करना जगत को, अपने मन में आप।
मन में हो शुभ कामना, जग को ग्रसे न ताप।।

उत्तम इच्छायें बसें, हरें शोक-संताप।
मन-गृह में आये नहीं, कभी पाप का बाप।।

मृदुल स्वभावों से करो, मानव का अभिषेक।
सारी जड़ता त्याग कर, जागृत करो विवेक।।

रहो शून्य में सूक्ष्म सा, सकल लोक में नाच।
पोथी पढ़ कर प्रेम की, सकल धरा पर वाच।।

बनते क्यों नहिं राम हो, कर सच्चे से स्नेह।
सेबरी के घर को समझ, अपना असली गेह।।

जीना सीखो मित्रवत, मित्र सहज अनमोल।
सबके उर में बैठकर, मधुर रसायन घोल।।

स्वर्ग बने जीवन सकल, छोड़ दंभ-अभिमान।
अवधपुरी का राम बन, मार असुर-शैतान।।

2- मिसिर की कुण्डलिया

मानव बन अतिशय सहज, भावुक सरल सुजान।
बैठाओ उर में सदा, रामेश्वर श्रीमान।।
रामेश्वर श्रीमान, बनें सबका उद्धारक।
पापी को भी मोक्ष, दिलाकर हों नित तारक।।
कहें मिसिर कविराय, नहीं बनना तुम दानव।
पढ़ मानव का पाठ,बनो मनमोहक मानव।।

हरिहरपुरी की कुण्डलिया

अतुलित बनने की करो, इच्छा मन में यार।
स्वाभिमान के मंत्र से,करना जीर्णोद्धार।।
करना जीर्णोद्धार, स्वयं को सुंदर रचना।
कर खुद का उद्धार, बनो उत्तम संरचना।।
कहें मिसिर कविराय, साधना करना परहित।
लगे जगत से नेह, धरा पर दिखना अतुलित।।

मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

गौतम बुद्ध महान में,लोग खोजते दोष।
अच्छाई दिखती नहीं, सिर्फ दोष-संतोष।।
सिर्फ दोष-संतोष, मनुज है कायर माया।
सुंदरता का अर्थ, नहीं जानत मन-काया।।
कहें मिसिर कविराय,गढ़त जो पथ सर्वोत्तम।
सकल राज सुत नारि, त्याग बनता वह गौतम।।

मिसिर की कुण्डलिया

मस्तक का श्रृंगार है, निर्मल मन का भाव।
पावन उज्ज्वल मन कमल, में औषधि की छाँव।।
में औषधि की छाँव, करत है कंचन काया।
हरती मन-उर रोग, बहाती सब पर दाया।।
कहें मिसिर कविराय, रखो मन में शिव पुस्तक।
चमके सदा ललाट, खिले चंदन से मस्तक।।

3- मेरी पावन शिव काशी

मेरी पावन शिव काशी का, हर वासी है संन्यासी;
कण-कण में इसके रहते हैं, अति मनमोहक अविनाशी;
परम मनोहर भोले बाबा, घूमा करते नगरी में;
दिव्य भावमय निर्मल धारा, रोज बहाती शिव काशी।

सकल लोक ब्रह्माण्ड अखिल से, बनी हुई है प्रिय काशी;
प्रीति नाद करते हैं हरदम, बम बम बम बम हर वासी;
सबके दिल में सरस मनोहर, अति निर्मल भावुकता है;
विश्वनाथ का स्वागत करती, मेरी पावन शिव काशी।

4- मेरी पावन शिव काशी

शिव काशी वैकुंठ धाम है, हरिहरपुर प्रिय अविनाशी;
शंकर-विष्णु यहाँ रहते हैं, बनकर सच्चा अधिशाषी;
बड़े प्रेम से गीत सुमंगल,गाते सारे देव-मनुज;
अद्भुत अतिशय रम्य सुरम्या, मेरी पावन शिव काशी।

जिसे प्रेम है शिव भोले से, वह बनने आता वासी;
जो संवेदनशील परम है, और सरल अंतेवासी;
वही थिरकता और मचलता, इस मनहर मधु नगरी पर;
अतिशय प्यारी मधुर प्रीतिमय, मेरी पावन शिव काशी।

संस्कृति-दर्शन-कला-ज्ञान, विज्ञान -गणित -साहित्य शशी;
आचार्यों का यह जमघट है, विज्ञ बाहरी प्रत्याशी;
बड़े-बड़े विद्वान धुरंधर, दिव्य देवगण रहते हैं;
परम अलौकिक धर्मपरायण, मेरी पावन शिव काशी।

बोझिल मन को शांति तभी जब, बनता है काशी वासी;
काशी सच में सदा सत्यमय, यहॉं नहीं कुछ भी आभासी;
रोग निवारक सहज सच्चिदा, आनंदक हर हर रज कण;
विघ्नहरण संकटमोचन है, मेरी पावन शिव काशी।

जो विपत्ति से घिर जाता है,आता सेवन को काशी;
बड़े-बड़े पापों से होता, मुक्त यहाँ का हर वासी;
प्रज्वल मन अरु निर्मल काया, का होता जो आतुर है;
उसे सहज अपना लेती है,मेरी पावन शिव काशी।

5- हरिहरपुरी का सवैया

भरना हर पेट यही करना, मन से दिल से शुभ चिंतन हो।
प्रभु से कहना सबको कुछ दें, हर मानव का अभिनंदन हो।
बदले सबकी नित सोच सदा, प्रिय भाव बहे परिवर्तन हो।
हिय में उपजे शिव वृत्ति सदा, सब शोक हरें सुख नर्तन हो।

6- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

रखना खुश हर जीव को, जो कुछ बने सो देहु।
देने के बदले सुनो, कभी न कुछ भी लेहु।।
कभी न कुछ भी लेहु, दान का अर्थ समझना।
दान यज्ञ का मान, जगत में स्थापित करना।।
कहें मिसिर कविराय, हृदय में सबके रहना।
मानव के प्रति सोच, सुखद पावन नित रखना।।

मिसिर की कुण्डलिया

प्यारा भारतवर्ष है, संस्कृति दिव्य महान।
इसको केवल जानते, जगती के विद्वान।।
जगती के विद्वान, जानते इसकी विद्या।
दिया विश्व को ज्ञान, मात शारदे आद्या।।
कहें मिसिर कविराय, कला-संस्कृति में न्यारा।
सहनशील शुभ इच्छु,जगत में सबसे प्यारा।।

7- गुम न होइये (सजल)

गुम न होइये कभी अहसास चाहिये।
आपका आभास आसपास चाहिये।।

तोड़कर वादा-कसम मत और कहीं जा।
सम्बन्ध के निर्वाह की बस प्यास चाहिये।।

विश्वास धराधाम पर ईश्वर का भाव है।
विश्वास में शिव विंदु का अभ्यास चाहिये।।

मानव वही है लोक में जो नेक मना है।
मन में शुभ संकल्प का हरिदास चाहिये।।

सम्बन्ध को नकारना आसान बहुत है।
सम्बन्ध में विश्वास का सहवास चाहिये।।

सम्बन्ध तो बनते विगड़ते हैं जहान में।
सम्बन्ध के निर्वाह में हर श्वांस चाहिये।।

आशा किया है जिसने उसको न तोड़ दो।
दिल की कली को आपका आकाश चाहिये।।

उलझन नहीं स्वीकार है झेला इसे बहुत।
सुलझे हुए हर प्रश्न का इतिहास चाहिये।।

विश्व के मनचित्र पर भूगोल बहुत हैं।
एक मानचित्र मधुर न्यास चाहिये।।

8- काशी (चौपाई)

काशी की अति न्यारी महिमा।
अतिशय दिव्य परम प्रिय गरिमा।।
काशी देवलोक की नगरी।
इसे जानती दुनिया सगरी।।

महादेव की है यह काशी।
रहते यहाँ ब्रह्म अविनाशी।।
हरते शंकर त्रय तापों को।
सहज काटते सब पापों को।।

भोलेशंकर मोक्षप्रदाता।
इन्हें समझना महा विधाता।।
मानववादी संस्कृति रचना।
काशी की मोहक संरचना।।

परम प्रसिद्ध जगत कल्याणी।
काशी की है मधुरी वाणी।।
पावन सरिता गंगा-वरुणा।
प्रेमरूपिणी माता करुणा।।

यदि सच्चा आनंद चाहिये।
शिव जी का वरदान चाहिये।।
काशी में ही अलख जगाओ।
खुशियों का त्योहार मनाओ।।

9- तलाश (सजल)

मौन में जवाब की तलाश कीजिये।
फालतू हर बात को हताश कीजिये।।

मौन को परमाणु जान मौन को स्वीकार कर।
बकवास को शैतान जान नाश कीजिये।।

बात को बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं जो।
क्लिष्ट इन नामर्द को निराश कीजिये।।

झूठ-मूठ की किताब गढ़ रहे हैं जो।
ऐसे कलमकार का विनाश कीजिये।।

शब्दजाल रच रहेजो भ्रम प्रचार में।
इन कुटिल-कुचक्र का उपहास कीजिये।।

मूर्खता की बात करते बन रहे सुजान वे।
ऐसे अहंकार का परिहास कीजिए ।।

सत्यता की राह जिन्हें लग रही गलत।
इन पर कुठाराघात का अभ्यास कीजिये।।

इंसान को जो अर्थ के पलड़े पर तौलता।
ऐसे घृणित शैतान का आभास कीजिये।।

तलाश हो इंसानियत के बाजुओं की अब।
इंसान में इंसान का विकास कीजिये।।

10- मिसिर की कुण्डलिया

मानव बनने की ललक, जिसमें है भरपूर।
वह दुष्कृत्यों से सदा ,रहता है अति दूर।।
रहता है अति दूर, सदा अपना मुँह फेरत।
सत्कर्मों के संग,स्वयं की नैया खेवत।।
कहें मिसिर कविराय, घृणा से देखत दानव।
चाहत केवल एक, बने वह सुंदर मानव।।

नोचो उसके पंख को, जो करता व्यभिचार।।
कदाचार के शब्द को,कहता शिष्टाचार।।
कहता शिष्टाचार,बुद्धि का वह मारा है।
अतिशय भोगी दृष्टि,पतित कामी न्यारा है।।
कहें मिसिर कविराय, जरा नीचों पर सोचो।
तोड़ो उसके दाँत,बाल -पंखे सब नोचो।।

11- सजल

तरसो न भटको सजन के लिये।
मोहब्बत करो नित वतन के लिये।।

बूँद बनकर बहो बहते जाना सतत।
सिंधु बन जाओगे शुभ्र जन के लिये।।

करते रह चिंतना सबके प्रति वेदना।
मन के भावों को गढ़ना सृजन के लिये।।

कोर रखना नहीं दिल से निर्मल बनो।
स्थान देना हृदय में सुजन के लिये।।

प्यार के पुष्प की नित्य वर्षा करो।
मोह लो सारे मन को चमन के लिये।।

श्रेष्ठ बनना सदा सोच पावन रखो।
जीते रहना सहज प्रेमपन के लिये।।

व्यर्थ में मत गवाना कभी जिंदगी।
जीना सीखो सदा ‘शिव मिशन’ के लिये।।

स्नेह रस को पिलाओ पिलाते रहो।
बाँट दो अपना सारा मगन के लिये।।

कुछ भी संचित न कर तेरा कुछ भी नहीं।
छोड़ दो पाण्डु बनकर कथन के लिये।।

12- सजल

तहेदिल से सजन को मनाया करो।
गुनगुनाया करो गीत गाया करो।।

सजन ही कलेजा है यह जान लो।
कलेजे को हरदम लुभाया करो।।

हो प्रसन्नानना मस्त सा बन चलो।
दिल की गंगा में गोते लगाया करो।।

मन के मालिन्य की नित सफाई करो।
स्वच्छ मन से सजन को सजाया करो।।

मन में आये अगर पाप रुकने न दो।
पुण्य का वेद नियमित पढ़ाया करो।।

नित्य रहना सजन संग सीखा करो।
सुख की संपत्ति निश्चित कमाया करो।।

प्रेम संगीत धारा परम निर्मला।
पावनी देव धारा बहाया करो।।

है सजन का मिलन दिव्य मन का फलक।
हर्ष से गीत साजन का गाया करो।।

छोड़ दो सारी जगती सजन के लिये।
साजना को हृदय से बुलाया करो।।

खुश रहो दुनियावालों स्वयं के लिये।
मित्रता में मधुर भाव लाया करो।।

खुश रहे मित्रता मित्रता के लिये।
विश्व की मित्रता को जिलाया करो।।

तार देकर बुलाओ सजन को सदा।
मन के मंदिर में प्रति क्षण बसाया करो।।

13- देखो मेरे पूज्य पिता को

देखो मेरे पूज्य पिता को।
अति भावुक पावन ममता को।।
न्यायनिष्ठ सुंदर समता को।
परम विनम्र महा प्रियता को।।

निर्छल परमेश्वर सहयोगी ।
साधु-संत परमारथ योगी।।
सहज गृहस्थ सत्य कल्याणी।
कढ़े गढ़े योधा मृदु वाणी।।

पारस जैसा गुणी रत्नमय।
रूप अलौकिक शिव कंचनमय।।
कृषक सुजान बुद्धि के सागर।
सभ्य सुसंस्कृति के मधु आखर।।

संस्कारसम्पन्न दयालू।
दिव्य मनीषी नित्य कृपालू।।
लक्ष्मीनारायण हरिहरपुर।
ब्रह्म जनार्दन शिव अंतःपुर।।

पंच बने प्रिय न्याय दिलाते।
उत्तम पावन बात बताते।।
सबका प्रिय बन विचरण करते।
हर मानव के दिल में रहते।।

ब्रह्मा-विष्णू-शिव जिमि सुंदर।
अनुभवशील प्रसन्न निरन्तर।।
ज्ञानवंत अति शांत महोदय।
सत्व प्रधान रम्य सूर्योदय।।

मिश्र कुलीन नम्र नित नामी।
सकल क्षेत्र के लगते स्वामी।।
आध्यात्मिक संवाद बोलते।
सबके मन को सहज मोहते।।

नहीं जगत में कोई दूजा।
करो पिता की केवल पूजा।।
मेरे पिता नित्य मुझ में हैं।
वही बोल-बोल लिखते हैं।।

वही बुद्धि के परम प्रदाता।
सन्तति के हैं वे सुखदाता।
शिक्षा-अन्न-ज्ञान देते हैं।
कष्ट-क्लेश को हर लेते हैं।।

धन्य-धन्य हे पूज्य पिताश्री।
सदा आप ही नारायणश्री।।
वंदनीय पित का अभिनंदन।
मुझ में पितागंध का चंदन।।

करो पिता का नियमित वंदन।
निश्चित वंदन प्रिय सुखनंदन।।
सदा पिता गुणगायन कर।
आदर्शों का नित पालन कर।।

14- प्रणम्य मातृ शारदे

वंदनीय शारदे प्रणम्य मातृ शारदे।
सुधन्य मातृ शारदे नमामि विश्व शारदे।।
भजामि मातृ शारदे पूजनीय शारदे।
विनम्र मातृ शारदे रहस्य दिव्य शारदे।।

सुरक्ष मातृ शारदे सुशिक्ष ज्ञान शारदे।
सुविज्ञ वेद ध्यानश्री सुसज्ज भव्य शारदे।।
विश्व के विधान की सुजान शान शारदे।
दया करो कृपा करो महानुभाव शारदे।।

अलभ्य शिव प्रभाव हो सहस्र बाहु शारदे।
अनंत आनना सदा सुशील सौम्य शारदे।।
कला निधान ज्ञानमय सुपंथ धाम शारदे।
विनीत दिव्य भव्य हो सुशांत मातृ शारदे।।

अगम्य हो सुगम्य हो अनंत मातृ शारदे।
दिव्य भाव प्रेम हो सुगन्ध पुष्प शारदे।।
भक्तिरूपिणी सतत स्वतंत्र मंत्र शारदे।
मोक्षदायिनी सहज सु-तंत्र मातृ शारदे।।

15- दिव्य भाव (सजल)

दिव्य भाव बनकर बहना है।
सुंदर मानव सा रहना है।।

कदम-कदम पर धाम बनाओ।
उत्तम कर्म सदा करना है।।

आकर्षक हों कर्म निरन्तर।
सात्विक भाव सदा गढ़ना है।।

शुभ भावों का सहज मिलन हो।
हाथ जोड़ सबसे मिलना है।।

कर्म प्रधान विश्व में स्थापित।
कर्म पथिक बनकर चलना है।।

देवों को आदर्श बनाकर।
मानव को दानी बनना है।।
ओर
जो देता है यश पाता है।
सदा यशस्वी बन जीना है।।

सुंदर कर्म करो दिन-राती।
प्रेम सरस अमृत पीना है।।

नेक इरादे हों संकल्पित।
सबके प्रति अच्छा करना है।।

पूर्वाग्रह को दुश्मन जानो।
मन को वस्तुनिष्ठ रखना है।।

कच्चा कान कभी मत रखना।
सच्चाई को खुद चुनना है।।

जालसाज से दूर खड़ा हो।
ताना-बाना खुद बुनना है।।

16- मेरी पावन शिव काशी

गायेंगे हम दोनों जमकर,वरुणा-अस्सी के संगम;
नाचेंगे हम झूम-झूम कर, बड़े प्रेम से नित हरदम;
हाथ मिलाकर अंक में भरकर, मुस्कएँगे रात-दिवस;
तड़प रहा है भावुक मन यह, देखन को पावन काशी।

आयोजन होगा निश्चित ही,बनना है काशीवासी;
रूप बनेगा प्रेमपरायण,भक्तिभावमय आवासी;
पावन निर्मल साथ रहेगा, गंग धार होगी उर में;
सहज भावमय हृदय मिलन की, होगी अनुपम शिव काशी।

17- योग दिवस
(छप्पय छंद)

करते रहना योग, जिस्म तब स्वस्थ रहेगा।
रख शरीर पर ध्यान, स्वस्थ तन काम करेगा।।
लो शरीर से काम, कभी मत आलस करना।
बहे पसीना नित्य, रोग काबू में रखना।।
चित्तवृत्ति को रोक कर,प्राणायाम सदा करो ।
है कपालभाँती सुखद,इसे ध्यान में नित धरो।।

होये योगाभ्यास, योग से सबकुछ सधता।
होता मन में हर्ष, स्वस्थ मन दुख को हरता।।
रहे योग ही ध्येय,योग ही मंगलकारी।
बहे योग की धार, चले बनने हितकारी।।
योगी का जीवन सुखद, योग को करते रहना।
मालामाल बनो सतत, स्वस्थ जीवन को रखना।।

18- छप्पय छंद

ताना कभी न मार, काम यह अति घटिया है।
देना सबको स्नेह, सोच यह अति बढ़िया है।।
व्यंग्य वाण जो छोड़ता, करता वह व्यभिचार है।
सबके प्रति सम्मान ही, सुंदर शिष्टाचार है।।
आहत करना पाप है, मत अधर्म की नाव चढ़।
सबके सुख का ख्याल रख, प्राणि मात्र की ओर बढ़।।

विनिमय का सिद्धांत, अनोखा बहुत निराला।
जिसका जैसा कृत्य, उसे वैसा ही प्याला।।
प्याला में मधु रस रहे, काम ऐसा ही करना।
जी भर कर पीना सदा, मस्त बनकर नित चलना।।
मानवता की नींव पर, दिखे यह सारी धरती।
उत्तम पावन भाव से, दुखद -दरिद्रता मरती।।

हो सबका उत्थान, मनोकामना हो यही।
शिष्ट-सुजन का मेल, है अनमोल रतन सही।।
सबके मन की भावना, का उत्तम सत्कार कर।
सबको पढ़ना सीख लो,मन में अपने भाव भर।।
सबका नित कल्याण कर, सुंदर सोच-विचार हो।
हरियाली हो सब जगह,सदा दिव्य व्यवहार हो।।

19- उल्लाला छंद

स्वाभिमान पहचान लो, यही सुखद अहसास है।
अपने में जीते रहो,अंतस ही आवास है।।

मन कारक को जान लो, मन संयम में ही लगे।
रहे शुभद मन भावना, सुंदर भाव सहज जगे।।

सबका नित सहयोग हो, कंधे से कंधा मिले।
विकृत मन के भाव की, चूल सतत हरदम हिले।।

उपकृत हो जीते रहो, सदा उपकारी बनना।
आओ सबके काम में, सुरभित बनकर गमकना।।

अपने मन को जीत कर, इंद्र सम बन जाना है।
चित्तवृत्ति अवरुद्ध कर, योगपथ अपनाना है।।

20- मेरी पावन शिवकाशी

मन में सुंदर भाव यही हो, बनना है काशीवासी;
शिवशंकर भोलेबाबा को, जपने का बन अभ्यासी;
गली-गली में विश्वनाथ का, डमरू खूब बजाना है;
धूम मचाओ भंग जमाओ, रंग जमाओ शिवकाशी।

मत बनना चाण्डालचौकड़ी,रहना मन से सन्यासी;
बिना स्पृहा के रच-बस जाना, बनकर दास और दासी;
सदा घूमना एक चाल से, गंगा जी में स्नान करो;
बाबा विश्वनाथ के दर्शन,हेतु घूम बस शिवकाशी।।

21- हरिहरपुरी के सोरठे

अनुशासन को रक्ष, सदा संयम से रहना।
बातें हों सब स्वच्छ, रहे न दिल में कुछ कपट।।

मत करना स्वीकार, कभी दूषित जन -मन को।
दो उनको धिक्कार, जिन्हें शिष्टों से नफरत।।

करो सदा इंसाफ, न्याय का डंका पीटो।
कर दो उनको माफ, अगर इरादा ग़लत नहिं।।

रखना उनको पास, जो सच्चा पावन मनुज।
करो उन्हीं से आस, मददगार इंसान जो।।

नहीं बनाओ मीत, जिनकी घटिया सोच है।
बनो सुखद संगीत, गीत की झड़ी लगाओ।।

जिनका मृदुल स्वभाव, वही हैं सुंदर मानव।
रहता नहीं अभाव, भाव में यदि है शुचिता।।

तोड़ झूठ संवाद, अगर निरर्थक है सदा।
करना नहीं विवाद,मूYYYर्ख से बच कर रहना।।

जो करता है त्याग, वही सुख का अधिकारी।
जहाँ भोग अनुराग,वहीं दुख सरिता बहती।।

22- गरीबी (सजल)

मत गरीब को अपमानित कर।
हर मानव को सम्मानित कर।।

नहीं गरीबी बुरी बात है।
जीना सीखो इसको सहकर।।

जो गरीब की सेवा करता।
क्या कोई है उससे बढ़कर??

जो गरीब को गले लगाता।
स्नेहयुक्त वह अति प्रिय सुंदर।।

जिसे गरीबी में भी सुख है।
उसको जानो साधु-संतवर।।

अर्थपीर जो सह लेता है।
सहनशील वह मानव प्रियवर।।

है गरीब की बस्ती पावन ।
जहाँ खड़े सबरी के रघुवर।।

भले दरिंदे प्रश्न चिह्न हों।
बनी गरीबी उनका उत्तर।।

नहीं पसन्द महल मानव को।
मानवता हरदम गरीबघर।।

ज्ञान सिखाती सदा गरीबी।
समझ गरीबी को प्रिय गुरुवर।।

जान गरीबी नहिं दुखदायी।
कढ़ता मानव बनत उच्चतर।।

आर्थिक संकट नहीं गरीबी।
है गरीब जिसका दिल बदतर।।

23- वर्ण पिरामिड


जाओ
घर में
जाना मत
बने रहना
लोग तरसते
तुम अनमोल हो
कभी बाहर न रह
दीदार तेरा हो सतत।

छू
लेना
बहुत
मनहर
छाँव शीतल
शील बनकर
मधुर तरुवर
के तले योगी सदा हो
अटल सा होना सतत।

क्या
मिला
सुन ले
अगर तू
आ सका नहिं
काम जनहित
कर भला सबका
सहज में चाह यदि
कल्याण की हो कामना।

24- हरिहरपुरी के रोले

संस्कारों का मेल,बनाता उत्तम मानव।
मन का दूषित भाव,बनाता राक्षस दानव।।

भर उत्तम संस्कार, बने मानव सर्वोत्तम।
संस्कारों का सिंधु, सतत गढ़ता पुरुषोत्तम।।

संस्कारों का भाव,सदा ऊँचा होता है।
संस्कार अनमोल,बीज अमृत बोता है।।

खोजो पावन मूल्य, करो सुंदर मन रचना।
दिव्य भाव आधार,गढ़त सुंदर संरचना।।

मिट जाता अपराध, अगर मन निर्मल-पावन।
बनता पाक समाज, अगर मन शुद्ध सुहावन।।

संस्कारो का योग, चाहिये बस मानव को।
भौतिकता की भीड़, रचा करती दानव को।।

मानव का निर्माण, किया करता जो डट कर।
रचता सुघर समाज, अपराधों से मुक्त कर।।

बलात्कार का अंत ,जगत में निश्चित होगा।
मानव हो यदि विज्ञ,सदा मनसा आरोगा।।

25- हरिहरपुरी का छप्पय छंद

जग को माया जान, फँसो मत इस वंधन में।
ढूढ़ मुक्ति की राह, कामना शुभतर मन में।।
डरो नहीं संसार से, हो निश्चिंत चला करो।
सहो फजीहत मत कभी,पाप कर्म से नित डरो।।
माया को पहचान कर, छोड़ो इसके संग को।
भ्रमजालों को तोड़ कर, चलो ज्ञान के गंग को।।

माया सच या झूठ, समझ माया की दुनिया।
यह क्षणभंगुर रूप, हर समय फेरत मनिया।।
लेत जन्म मरती सतत, माया दृश्य-अदृश्य है।
गावत-रोवत चक्रवत, लीला करती नृत्य है।।
जन्म-मरण सुख-दुख सहत, तन-मन का संसार यह।
लाभ-हानि के फाँस को, करता अंगीकार यह।।

26- कृष्ण (सजल)

कृष्ण बनना बहुत ही कठिन काम है।
कृष्ण में राधिका का सहज धाम है।।

कृष्ण निःस्पृह सदा एक रस प्रेम के।
गोपिकाओं-लताओं के प्रिय नाम हैं।।

कृष्ण लीलाधरण प्रेम में आशिकी।
राधिका के लिये वे निरा काम हैं।।

राधिका नाचतीं कृष्ण को देखकर।
भक्ति की उच्चता की स्वयं वाम हैं।।

कृष्ण कहते सदा राधिके राधिके।
कृष्ण में राधिका का मधुर ग्राम है।।

दोनों दो हैं नहीं एक ही मूर्ति हैं।
दोनों प्रेमी युगल एक ही नाम है।।

प्रेम राधा में है कृष्ण में भी वही।
प्रेम के नाम पर होते सब काम हैं।।

प्रेम द्वापर में पनपा व फूला-फला।
प्रेम की जिंदगी में सदा श्याम हैं।।

प्रेम सच्चा जहाँ कृष्ण रहते वहाँ।
वृंदावन का वहीं राधिका धाम है।।

रात-दिन प्रीति करते सदा कृष्ण हैं।
प्रीति में दिखता राधा का शुभ नाम है।।

हो नहीं राधे-कान्हा की संगति यदा।
प्रेम का नाम धरती पर बदनाम है।।

प्रेम करते बहुत पर निभाते नहीं।
छोड़ जाते बहुत करके गुमनाम हैं।।

प्रेम को जो निभाता वही कृष्ण है।
बादलों सा बरसता वह घनश्याम है।।

निभाये जो रिश्ता वही दिल से प्रियवर।
वंशी की धुन पर मचलते श्री श्याम हैं।।

27- वर्ण पिरामिड

जो
सेवा
सम्मान
सहज में
रहता लगा
समझ उसको
है अति प्रिय प्राणी।

ना
कह
हाँ कर
क्या कहने?
ऐसा भावुक
परम दिव्य सा
मनुज मनोहर।


मन
बस जा
रहो सदा
मधु मानव
बनकर नित
कर प्रिय लीला ही।

जो
हर
तरह
सदा रत
सेवक जैसा
समझो उसको
परम सुहावन।

जो
नीचे
रहा है
उसे अब
कृपा करके
ऊपर जाने का
सुनहरा मौका दो।।

28- कामना (सजल)

आप आये नहीं कामना के लिये।
क्यों न हिम्मत हुई सामना के लिये।।

कामना एक अंकुर धराधाम पर।
सींच इसको सदा भावना के लिये।।

मार देना नहीं मूल विकसित करो।
जीव बनना स्वयं साधना के लिये।।

पावनी चिंतना का यशोगान हो।
जाग जी भर मनुज वंदना के लिये।।

कामना को कुचलता नहीं है मनुज।
दनुज जीता सतत यातना के लिये।।

प्रिय जहाँ भाव में प्रेम का सिंधु है।
वह न जीता कभी वासना के लिये।।

कामना को समझ मत कभी वासना।
कामना जी रही शिवमना के लिये।।

शिवमना है जहाँ सत्य जीवित वहाँ।
सत्य जीता सहज सज्जना के लिये।।

कामना है बुलाती सकल विश्व को।
आप आओ रहो जन-धना के लिये।।

29- साया (कुण्डलिया)

साया सबको चाहिये, साया का है अर्थ।
जो पाता साया नहीं, उसका जीवन व्यर्थ।।
उसका जीवन व्यर्थ, बिना आश्रय के जीता।
किंकर्तव्यविमूढ़, गमों की मदिरा पीता।।
कहें मिसिर कविराय, रहे चेतन मन-काया।
जिसके ऊपर होय, सदा ईश्वर का साया।।

साया उत्तम का करो, आजीवन यशगान।
मात-पिता-गुरु-ईश ही, जीवन के वरदान।।
जीवन के वरदान,भाग्य से मिलते उनको।
जो सत्कर्मी वेश, किये धारण शुभ मन को।।
कहें मिसिर कविराय, जगत यह केवल माया।
जीवन है वरदान, मिले यदि दैवी साया।।

30- माहिया

साया बनकर आना
नहीं भूलना तुम
तन-मन पर छा जाना।

प्रियतम को पाना है
चूक नहीं होगी
प्रिय के घर जाना है।

मधुघट का प्याला हो
चाह रहा पीना
तुम मेरी हाला हो।

तुम पास सदा रहना
वायु बने बहना
मन को शीतल करना।

तेरी ही आशा है
छोड़ नहीं देना
तेरी प्रत्याशा है।

भावुक होकर बहना
साथ चलो मेरे
प्रिय शब्द सदा कहना।

दिल को बहलाना है
देख जख्म दिल के
इसको सहलाना है।

पाँवों में छाले हैं
बहुत दुखी काया
पीड़ा के प्याले हैं।

तुम प्रीति पिला देना
है निराश यह मन
मृतप्राय जिला देना।।

31- हरिहरपुरी के सोरठे

जब आता संतोष, कामना मिटती जाती।
सदा आत्म को पोष,आशुतोष का भाव यह।।

अपना जीवन पाल, सदा रहो सत्कर्म रत।
सत्कर्मों का हाल, सहज शुभप्रद सुखदायी।।

मन से कभी न हार, रहे मनोबल अति प्रबल।
मन तन का श्रृंगार, यदि यह पावन शिवमुखी।।

इन्द्रिय को ललकार, शुद्ध बुद्धि से काम कर।
ईर्ष्या को धिक्कार,दुश्मन है यह प्रेम का।।

करता जो स्वीकार,गलत राह को हॄदय से।
बन जाता आधार, वह अपराधी जगत का।।

मन में अतिशय लोभ, कारण बनता नाश का।
होता जब है क्षोभ,सिर धुन-धुन कर पटकता।।

तन-मन-उर अरु बुद्धि,करो जरूरी संतुलन।
जहाँ ध्यान में शुद्धि,वहाँ व्यवस्था स्वस्थ प्रिय।।

32- माहिया

जरा हाथ मिला लेना
छोड़ चलो नफरत
रस प्रीति पिला देना।

करवद्ध यही कहता
बात सदा मानो
राह जोहता रहता।

करुणा हो सीने में
सुनो करुण क्रंदन
भाव बहे जीने में।

कुछ प्यार जता देना
यार बने आओ
कर खड़ी स्नेह सेना।

दिल खोल मिलो सजना
सहज प्रेम वंदन
मन से दिल में बहना।

रोता मन शांत करो
संग रहा करना
निज शीतल हाथ धरो।

मुस्कान भरा नर्तन
लगे मीठ वाणी
सजा-धजा परिवर्तन।

आँगन में नाच करो
स्वयं गगन देखे
मानव में साँच भरो ।

33- मेरी पावन शिवकाशी

दशाश्वमेध घाट अति पावन, विश्वनाथ इसके वासी;
सब घाटों से यह बढ़ -चढ़ कर, दिव्य पुरातन सुखराशी;
गंगा मैया का निर्मल जल, इसी घाट की शोभा है;
स्वच्छ-धवल-रमणीक तीर्थ है,मेरी पावन शिवकाशी।

सदा जागरण होता रहता, कभी नहीं सोती काशी;
जन-जन में चेतना प्रस्फुरण,हर हर कहता हर वासी;
चिंतन होता शिव भोले का,महादेव का नारा भी;
सबके उर में नाचा करती,मेरी पावन शिवकाशी।

34- प्रेम रस (दोहे)

प्रेम भावना जागती, मन जव प्रिय के पास।
पिया बिना मन में कहाँ, सुरभित प्रेम प्रकाश

आओ प्रियवर सन्निकट, कहीं न जाना दूर।
मेरे-तेरे शुभ मिलन,में हो सुख भरपूर।

इंतजार अब त्याग कर,चलो मिलन को आज।
दिल का ताला तोड़कर, दो मीठी आवाज।।

ताज पहनकर प्रेम का,चल दो अब अविलम्ब।
प्रेम रूप साकार हो,रस का हो आलम्ब।।

रसना से बरसात हो,मादक लय-सुर-ताल।
मधुर-मधुर झंकार में, हो मनमोहक चाल।।

मिले प्रेम रस इस तरह, पीये मन भरपूर।
थकने का मत नाम ले,रहे मगन में चूर।।

तन प्याला में रस सरित, बहे सदा दिन-रात।
पढ़ते जाना अनवरत, सहज प्रेम की पात।।

रस बरसे टपके सतत,नूतन हो हर चाल।
भींगा-भींगा प्रेम तन,पहने स्नेहिल छाल।।

बूँद-बूँद से घट भरे,मन-उर हो संतृप्त।
रोम-रोम में हर्ष हो, जागे सकल सुसुप्त।।

संघर्षण हो अति सुखद, हर्षण हो नव-नव्य।
प्रेम पाग में डूबकर,दिखे दृश्य मधु भव्य।।

गीत लिखें गायें सतत, होय मिलन साकार।
प्रेम पंथ का पथिक बन, होय शिष्ट आचार।।

गले मिलें करबद्ध हो, बाहों में हो जोश।
प्रेम मदिर का पान कर, रहें नित्य मदहोश।।

एक रूप हो बैठ कर, करें सदा अभ्यास।
प्रेम दिव्य सहवास का,हो मादक अहसास।।

प्रीति पवन चलता रहे,मुस्कानों का गान।
दिल में प्रेम जगत खिले, बढ़े प्रेम का मान।।

35- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

कहता हरिहरपुर यही, रहो काम से काम।
केवल अपने काम को, करते रह अविराम।।
करते रह अविराम, काम सुंदर सा करना।
खुद को सहज सँवार, स्वयं अपने दुख हरना।।
कहें मिसिर कविराय, कष्ट अपना जो सहता।
चलता अपने पंथ, स्वयं से सबकुछ कहता।।

36- मेरी पावन शिवकाशी

काशी का हर कंकड़ शंकर,अति अद्भुत मौलिक वासी;
क्षिति-जल-अवनि-पवन-नभ पावन, सबकी चाहत है काशी;
सभी परस्पर प्रीति रीति से, धर्म निभाते रहते हैं;
सभी प्रफुल्लित हो पूजन को, कदम बढ़ाते शिवकाशी।

काशी शब्द परम नित अनुपम, अतिशय पावन अविनाशी;
महा काल की तपोभूमि प्रिय, शिव-भैरव हैं अधिशासी;
संकटमोचन महावीर की, पावन भूमि यहीं पर है;
ब्रह्मलोक की पावन वसुधा, मेरी पावन शिवकाशी।

37- ले कलम….

ले कलम तलवार चल अब युद्ध कर।
हो रहे जो पाप उनको शुद्ध कर।।
तोड़ दो उनकी कमर जो पापरत।
कृत्य गंदे को सतत अवरुद्ध कर।।

कर कलम से वार मत संकोच कर।
लो निशाना पार्थ सा कुछ सोच कर।।
चिंतना में धार की बौछार हो।
मार दो दुर्योधनों को नोच कर।।

शब्द से घायल करो दुष्कृत्य को।
वाक्य से मारो सदा अपकृत्य को।।
नीचता पर घात करना धर्म है।
लो बचा लो कलम से सत्कृत्य को।।

38- दुर्मिल सवैया

मन में नहिं चोर रहे कबहूँ, मन को नित साफ किया करना।
निःशंक रहो कपटी न बनो, शुभ चिंतक हो चलते रहना।
सबके प्रति भाव विशुद्ध रहे, सबको अपना करते चलना।
ग़लती न करो सच राह धरो, बन पावन वायु सदा बहना।

39- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

बरसो वारिद संयमित,बनकर कर हरियार।
हरियाली हो भूमि पर, फसल उगे बरियार।।
फसल लगे बरियार, प्रफुल्लित हो जनजीवन।
मिले सभी को अन्न, रहे खुश सबका तन-मन।।
कहें मिसिर कविराय,बिना पानी मत तरसो।
उद्यम से जल खींच, सदा पृथ्वी पर बरसो।।

40- आशा (दोहे)

आशा मेरी नायिका, आशा ही संवाद।
आशा जीवन वृत्त है, हरत सकल अवसाद।।

आशा ही आधार है, आशा कृत परिणाम।
आशा जेहन में बसी, करत कर्म निष्काम।।

आशा ही सुखयोग है, आशा मन का योग।
आशा ही हरती सदा, मन के सारे रोग।।

आशा जीवित शक्ति है, आशा में है जान।
आशा में जो रम गया,हुआ उसे सद्ज्ञान।।

आशा को साथी चुनो, रहो रात-दिन संग।
आशा जिसके पास है, वही जीतता जंग।।

आशा की हो कामना, आशा की हो चाह।
आशा जिसकी हमसफ़र, सरल हर कठिन राह।।

आशा शीतल छाँव का, करो सदा यशगान।
आशा का हरदम रहे, मन में सुरभित भान।।

आशा पावन कामिनी, आशा मधुमय प्रीति।
जिस घट आशा राज है, उस घट मधुरिम रीति।।

आशा उत्तम जीवनी, लिखती दिव्य सुलेख।
आशा के साम्राज्य में, सहज प्रीति की रेख।।

आशा को छोड़ो नहीं, इसे प्रेम में बाँध।
यही स्नेह के योग्य है, अमृत तुल्य अगाध।।

जो आशा को जानता, घुलमिल बनत महान।
आशा की मोहक चमक, जिमि दामिनि का तान।।

आशा में जो जी रहा, वही बड़ा बलवान।
आशा की नित वंदना, पर करना अभिमान।।

आशा!आओ साथ में, करो संग में नृत्य।
भर लो अपने अंक में, दिखो धरा पर स्तुत्य।।

आशा की जयकार हो, आशामय हर सोच।
दुखियों के आँसू सदा, प्रिय आशा से पोछ।।

आशा ही हो प्रेमिका, दिल को करे प्रशांत।
उनको ढाढ़स दे सतत, जो भय से आक्रांत।।

आशा बसती है जहाँ, वहाँ सिंह सुख द्वार।
आशा की मुस्कान से, टपकत रस की धार।।

आशा ही वामांगिनी,बनकर दे शुभ लोक।
रच-रच-रच लिखती रहे, अमर कृत्यमय श्लोक।।

41- मदिरा सवैया

नाचत गावत जागत सोवत सोचत सादर पावन है।
मानस भावन मोहक मोदक मादक लोकलुभावन है।
पारस कंचन खान रचे गुणगान सदा शिव सावन है।
याचक जो प्रतिदान करे सबकी सह ले मनभावन है।

42- मदिरा सवैया

हे प्रभु दीनदयाल सदा मनमोहन रूप धरा करिये।
नाथ तुम्हीं जगदीश बने सब के दुख को हरते रहिये।
क्रोध नहीं करना प्रभु जी अति शांत उदार बने चलिये।
पीर हरो हर मानव का सुखक्रांति बने जग में बहिये।

प्रीति रहे हर मानव में सबमें शिव भाव समाहित हो।
राम बने रहना जग में धनु ले करना सबका हित हो।
श्वांस चले अरु आस रहे सबका मन- मानव हर्षित हो।
भाव प्रधान रहे धरती परती न रहे अभिसिंचित हो।

त्याग व्रती हर मानव हो करुणा रस भाव बहे सब में।
राह मिले अति सुंदर सी कृप रूप निखार रहे जग में।
मोल न तोल रहे जग में सब प्रेम रखें अपने मन में।
काग निरामिष हों अब से सब हंस दिखें उड़ते नभ में।

43- छप्पय छंद

सबके प्रति निष्काम, भाव का पालन करना।
होय सत्य का संग,सोच प्रिय उत्तम रखना।।
दुख पहुँचाना मत कभी, दुख देने से दुख मिले।
सुख देना ही धर्म है, सुख की संस्कृति नित खिले।।
अहं वहम को त्याग कर,शांति का पाठक बनना।
धूर्त नहीं बनना कभी,सत्य की मूरत गढ़ना।।

मरता रहे गुमान, अगर पावनता मन में।
मानव होना स्वच्छ, कठिन है यह जीवन में।।
मन से यज्ञ करो सदा,होम कर हवि पावन से।
पुरुवाई का सुख मिले, बहे तेरे आवन से।।
खुद को दे दो दान में,आत्मा को जागृत करो।
बनकर पवन बहो सदा, पुण्य वायु सब में भरो।।

44- हरिहरपुरी के सोरठे

होता जब है रार, शांति यमघट में जाती।
छोड़ सकल तकरार, सुख का नित सेवन करो।।

जोड़ प्रेम का तार,सारे दिल मिल एक हों।
बने एक संसार, सहज सरल प्रिय शुभ नवल।।

जीना है बेकार,बिन समता के मेल के।
सुख का हो आधार, सत्य न्याय करुणा सुमन।।

सत्कर्मो की देह, रचती स्वर्गिक सीढ़ियां।
स्वर्ग वही है गेह, अभिवादन आदर जहाँ।।

बनता दिव्य समाज, अति विवेक सहयोग से।
करता दिल पर राज, जिसका सच्चा हृदय है।।

आता जब संतोष, योगी बनता मनुज है।
उसी यत्न को पोष,रत्न गर्भ गृह हो जहाँ।।

मानव मालामाल, अंतस में घुसपैठ से।
करता सहज कमाल, रत्नाकर बनकर खड़ा।।

मन-काया हो साफ, दया चरित के पाठ से।
खुद को करो न माफ, यदि गलती कुछ हो गयी।।

होना नहीं निराश, सत्य पंथ पकड़े चलो।
देखो नित आकाश, सतत गमन करते रहो।।

अति पावन है नीर, सुंदर भाव सरित जहाँ।
बनना सीख कबीर, ले लाठी निष्पक्ष की।।

सब मलाल को त्याग, क्षमादान -दाता बनो।
प्रेम लोक में जाग, प्रेमी बन कामी नहीं।।

नारी शक्ति महान, आदर अरु सम्मान हो।
ब्रह्माणी को जान, पूजन करना है सदा।।

नारी का सम्मान, बढ़ाता सबकी गरिमा।
नारी लोक महान, वंदनीय अति स्तुत्य है।।

नारी को पहचान, यह घर में लाती खुशी।
नारी असली ज्ञान, पढ़कर इसका पाठ कर।।

नारी पावन ग्रन्थ, इसे सँजो कर रख सतत।
यही पुण्य का पंथ, राह दिखाती विश्व को।।

45- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

सत्ता पाने के लिये, मानव है बेचैन।
भयाक्रांत नेता सभी, रोते हैं दिन-रैन।।
रोते हैं दिन-रैन, सुखद क्षणभंगुर खातिर।
ऐंठे सत्तासीन,बहुत हो जाते शातिर।।
कहें मिसिर कविराय, तभी हिलता है पत्ता।
चाबुक ले कर हाथ, चलाती जब भी सत्ता।।

46- मदिरा सवैया

गायन वादन हो जग में सब मौज करें अति मस्त रहें।
प्रीति बसे सब के उर में सब प्रेम वशीकृत व्यस्त रहें।
भाव समंदर दिव्य बहे सब रोग निराद्रित त्रस्त रहें।
अग्र रहे अनुशासन मानस आतुर साधक तत्व रहें।

व्याकुल तत्व दरिंद भगें सुखग्राम दिखे इह लोक अभी।
स्वच्छ बने यह सागर भव्य सुसभ्य बने हर मानव भी।
राज चले जिमि राम चले रघुनायक रूप दिखे अब भी।
कष्ट कटे मधु धाम खिले प्रभु नाम जपें हरि भक्त सभी।

47- उल्लाला छंद

अमृत की वर्षा जहाँ,वहीं पर बरगद उगता।
शीतल छाया नित मिले, मनुज का चेतन जगता।।

अमृत अपनेआप में,है यह तत्व सदा अमर ।
तृप्त चराचर सकल जग,तृप्त होता मन सुखकर।।

अमृतमय ब्रह्माण्ड है, कण-कण में अमृत सहज।
जीवन में अमृत भरा, पहचानो यह दिव्य रज।।

अमृत यदि होता नहीं, समझ लो सृजन असंभव।
अमृत पावन गंग जल, जटा शंकर में उद्भव।।

सत्कर्मों में रस अमी,धर्म क्षेत्र में अमर यश।
पुण्य राज्य साम्राज्य में, पाया जाता मधुर रस।।

48- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

सागर मन-भव से निकल, उठतीं सतत तरंग।
रंग-रंग के रूप हैं, विविध अंग-प्रत्यंग।।
विविध अंग-प्रत्यंग, बनाते अनुपम जगती।
तरह-तरह के दृश्य, विविध लगती यह धरती।।
कहें मिसिर कविराय,तरंगें रचतीं नागर।
मन को अद्भुत जान,भरा है इसमें सागर।।

49- मत्तगयंद/मालती सवैया

सोहर बालक जन्म हुआ पित-मात सभी मन में सुख हर्षा।
गोद भरी मन में लहरें अति वेग सुधा रस स्नेहिल वर्षा।
पावन पुण्य पिता उदया हृदया मगना प्रिय भाव प्रहर्षा।
सावन झूम उठा दिल में जननी शिशु देखत स्नेह सहर्षा।

50- ….चाहिये (सजल)

एक सुंदर सा सलोना रूप हमको चाहिये।
मधु सुगन्धित भावना का भूप हमको चाहिये।

हो नहीं नाराज जो हर बात पर,
एक प्रियतम आतमा का स्तूप हमको चाहिये।

नीर निर्मल सदा शीतल मन प्रहर्षक दिव्य हो,
एक पावन गंगमय शिव कूप हमको चाहिये।

काँपती काया बहुत ही ठंड से,
गर्म के अहसास को अब धूप हमको चाहिये।

दीखती उपमा यहाँ पर एक से बढ़ एक सी,
कुछ नहीं बस स्वर्ण सुमुख अनूप हमको चाहिये।

अन्न-तन-मन में भरे भूसे दिखे,
साफ करने के लिये इक सूप हमको चाहिये।

51- किरीट सवैया

स्वागत में उनके जगती जिनके कृत कर्म महान सुनायक।
धाम बने करतूत सदा कदमों पर हो शिव धर्म विनायक।
चाल रहे मतवाल करे सबके हित में शुभ काज सहायक।
संकटमोचन नाम पड़े सबके उर पैठ बने अधिनायक।

विज्ञ बने हर मानव का मन ध्यान रहे हर भाँति सुचालक।
काम करे दुख क्लेश सहे मनमीत बने हरि रूपक पालक।
द्वेष सदा कुचले पग से निज स्वारथ त्याग बने अरिघालक।
ज्ञान महान विशाल कमाल सुधार उघारत वृत्ति कुचालक।

सभ्य बना शिव मानव हो विचरा सगरी धरती शुभ सुंदर।
राग न द्वेष रखा मन में बस जाप किया अति प्रेम धुरंधर।
ज्ञान रखा शिवशंकर का तप साधक हो कहता शिवशंकर।
शांत बना प्रिय शब्द लपेट उवाच किया निज रूप स्वयंवर।

52- मदिरा सवैया

पायल की सुन गूँज चला मन झूम उठा अपने हिय में।
चाहत में बस एक यही मन लाग रहे अपने पिय में।
देख बसे मन प्यार बहे झुनकार सजे अपने जिय में।
आनन घूँघट से छलके कटि देश खिले मन के त्रिय में।

मत्तगयंद/मालती सवैया

पावन पावस वायु बहे झकझोर चले पुरुवा सरसाता।
कामिनि नाचत कूदत गावत ढोल बजावत देख सुहाता।
मेघ चला जल लेय घुमा उमड़ा-घुमड़ा चहुँओर बहाता।
दादुर बोलत पाय अगाध सरोवर नीर अपार विधाता।

किरीट सवैया

मानुष हो कर जो सबके मन को समझे वह सुंदर भावन।
मौसम हो अनुकूल सदा सुख का अहसास दिलाय सुहावन।
दूध दही बनता नहिं है जब जात नहीं उसमें तक जावन।
मानव जन्म निरर्थक है यदि प्रेम नहीं उसमें अति पावन।

53- प्रेम (सजल)

प्रेम दिखाकर छोड़ दिये क्यों?
आ समीप मुँह मोड़ लिये क्यों??

घट में प्रीति भरी ऊपर तक।
प्यारे घट को फोड़ दिये क्यों??

मन दीवाना केवल तेरा।
इसके दिल को तोड़ दिये क्यों??

सपने में बस एक तुम्हीं थे।
तुम इस कदर मरोड़ दिये क्यों??

था विश्वास अटल अति पावन।
मन के भाव सिकोड़ दिये क्यों??

क्या त्रुटियाँ थीं यह तो बतला?
दिल के नीर हिलोड़ दिये क्यों??

आस लगी थी तुझसे कितनी?
मन को दुख से जोड़ दिये क्यों??

प्रेम रज्जु सीधा-सादा था।
भोलेपन को छोड़ दिये क्यों??

स्नेह का मजहब समझ न पाये।
प्रेमादर को खोड़ किये क्यों??

54- मदिरा सवैया

आपन सोचल होत कहाँ प्रभु सोचत जो वह होत सदा।
सोच नहीं सब छोड़ वहीं प्रभु देखत है सब होय जुदा।

मारत है व दुलारत है पुचकारत रक्षक लेय गदा।
आस रखो वह एक सदा न निराश बनो वह है सुखदा।

आनन-फानन छोड़ चलो अति संयम से सब काम करो।
बुद्धि प्रयोग किया करना मन का वश त्याग सुदूर धरो।
आशय शुद्ध विशुद्ध रहे मन वेग प्रवाह उदास चरो ।
साथ रहे अतिरेक नहीं सुविवेक विचारक भाव भरो।

55- मेरा प्यार (सजल)

मेरा प्यार बाहर नहीं जायेगा।
अंतस में बैठा भजन गायेगा।।

घूमा चतुर्दिक वह देखा सभी को।
पाया नहीं कुछ सँभल जायेगा।।

होती सुहानी हैं ढोलक की गूँजें।
नजदीक से ज्ञान खुल जायेगा।।

दिल में ही बैठा है प्रियतम सलोना।
अंतर में खोजो तो मिल जायेगा।।

करो प्यार खुद से स्वयं मीत बनकर।
बहो अपनी बाहों में खिल जायेगा।।

छोड़ो भरोसा सभी मतलबी हैं।
करो खुद की आशा जग हिल जायेगा।।

मेरे प्यार को अब तड़पना नहीं है।
स्वयं यह स्वयं में पिघल जायेगा।।

गहरे समंदर में सीखो तो जाना।
चलो डूब जाओ मचल जायेगा।।

सब कुछ है भीतर जरा ढूढ़ लेना।
प्यारे रतन को अटल पायेगा।।

देखा स्वयं में डुबो कर स्वयं को।
मेरा प्यार सच्चा सचल आयेगा।।

56- पुरुषोत्तम कुण्डलिया

सारस्वत साधक बनो, छोड़ दूसरा कर्म।
लेखन सर्वोत्तम सरल, यह भावों का धर्म।।
यह भावों का धर्म, लेखनी चले निरन्तर।
अमृत बनें विचार, दिखें कागज पर सुंदर।।
कहें मिसिर कविराय,भरो जगती में ताकत।
रच पुरुषोत्तम विश्व,स्वयं बनकर सारस्वत।।

पूजन माँ का नित करो, नियमिय सुंदर गान।
माँ से बढ़कर है नहीं, कोई भी सम्मान।।
कोई भी सम्मान, दिलातीं माँ भक्तों को।
दिव्य पढ़ातीं पाठ, सहज ही अनुरक्तों को।।
कहें मिसिर कविराय,भजे माँ श्री को जन-मन।
माँ के पावन भाव, होय लेखन अरु पूजन।।

सर्वोत्तम साहित्य से, गढ़ सुंदर इंसान।
मानवता को देख कर, खुश होंगे भगवान।।
खुश होंगे भगवान,पुष्प की वर्षा होगी।
आयेंगे सब देव, लोक में हर्षा होगी।।
कहें मिसिर कविराय,सत्य लेखन ही उत्तम।
चल खुद बन साहित्य, बनो मानव सर्वोत्तम।।

लिखने का अभ्यास कर, लिखते रहो सुलेख।
पावन भाव-समुद्र को, जन्म-जन्म तक देख।।
जन्म-जन्म तक देख, भाव से रत्न निकालो।
शब्द रत्न अनमोल, उन्हें लेखन में डालो।।
कहें मिसिर कविराय,आ गया जिनको पढ़ने।
दिखी लेखनी हाथ, सतत लगती है लिखने।।

पुरुषोत्तम रच छंद को, हो मधु अमृत भाव।
सरस अमी रस शब्द से,मोहक सकल स्वभाव।।
मोहक सकल स्वभाव, लगे रसना सम्मोहक।
होठों पर हो स्नेह, बोल अनुपम शिव पोषक।।
कहें मिसिर कविराय,सहज लेखन सर्वोत्तम।
सत-प्रिय भाव-स्वभाव, गढ़त लेखक पुरुषोत्तम।।

कुण्डलिया में प्रेम ही, पावन पारस तत्व।
सबकी काया स्वर्ण बन, चमकाये निज सत्व।।
चमकाये निज सत्व, चतुर्दिक चमकें सूरज।
चमके भूमि विशाल,सुगन्धित सारा भू-रज।।
कहें मिसिर कविराय,बदल दो सारी दुनिया।
बन सारस्वत पूत, रचो उत्तम कुण्डलिया।।

57- मदिरा सवैया

बारिश में घनघोर घटा अति प्रेम छटा विखरे मन में।
रोम हुआ अति हर्षित सा बहु जोश भरा सगरे तन में।
फूल खिले सगरी बगिया रतिया सुख सागर है जन में।
मोर सदा खुशहाल दिखे अरु नाचत मस्त स्वयं वन में।

हर्ष सदा उमड़ा मन में जब बादल नीर गिरे धरती।
खेत सभी मनुहार लगें जब नीर प्रसन्नशुदा परती।
बूँद सुहावन दिव्य लगे जब ताप सभी जन का हरती।
होत किसान सुखी मन से लगता जिमि हाथ लगी युवती।

पावस मास सुहावन शोभन अंगम जोश उमंग भरा।
प्रेम गली सगरी सकरी पर बारिश बूँद से अंग हरा।
गीत सुमंगल वेश धरे थिरके सबके उर में गहरा।
सार यही इस जीवन का जल वृष्टि भरे सबका गगरा।

58- किरीट सवैया

बारह मास रहे शिव सावन लोकलुभावन दिव्य सुहावन।
सावन में सब झूम उठें अति धूम मचे मधु भाव स्वभावन।
मस्त रहे मन नाच उठें सब देख सदा डमरू मृगछालन।
शंकर नृत्य करें जम के हर मानव देखत शंभु प्रभावन।।

सावन मास बने रखवाल सदा शिवनाथ रचें प्रिय मानव।
भूत न प्रेत दिखें धरती पर दुष्ट पिशाच डरें सब दानव।
शंभु सदाशिव शांत रहें अति भव्य लगें प्रिय नित्य सुमानव।
संग उमा शुभ भाव रहे गण-ईश गणेश रचें शिवमानव।

तामस वृत्ति मरे जल जाय सदा बरसे मधु अमृत बादल।
बूँद सदा रसखान बने सबके सिर ऊपर स्नेहिल आँचल।
शंकर भक्त चलें भर गागर मंदिर शंकर के चल पैदल।
जीवन होय महा शुभगा दिल प्रीति रहे शिव स्नेह अघायल।

59- दुर्मिल सवैया

रखना मन को अपने वश में अति संयम से चलते रहना।
कहते हरिकृष्ण सुजान बनो यम योग स्वभाव रचा करना।
समता शुभदायक मंत्र जपो बन सिद्ध महान सदा चलना।
चल झूम बनो ललना सबका जग में मनमीत बने बहना।

सबका दिल जीतन को चल दो सबसे अति प्यार किया करना।
मत तोड़ कभी दिल मानव का सुगना बन जा उड़ते रहना।
गगना उस पार चला करना सबके हित का सपना बुनना।
उठ जाय तरंग सदा हिय में सबमें बसना सबका बनना।

मन-बुद्धि-विवेक सुधार करो सबके मन में रचना-बसना ।
शुभ योग करो सहयोग करो धर धीर विचार सदा कसना।
मनरोग हरो दुख-क्लेश हरो भव रोग भयानक को डसना।
हरिधाम रहो सुखधाम बनो प्रिय ग्राम रचो मधु हो रसना।

अपने धुन में नित मस्त रहो खुद के दिल को पढ़ना-लिखना।
सुनना खुद से गुनना खुद ही बन वस्तु प्रथा रचते दिखना।
खुद काम करो सब छोड़ भरोस सदा निज छाँव सुधा रचना।
कर धारण धर्म ध्वजा कर में बन पार्थ सदा विजयी बनना।

मन से लड़ना मन में लड़ना मन कायर को ललकार सदा।
दुख वृत्ति कटे दुख भोग मिटे दुख सिंधु बुझे शत बार सदा।
मन ग्रन्थि जले शिव पंथ खिले हुलसे उर प्रेम विचार सदा।
बलिराम करें अपने पुर में शिवराम सुधाम गुहार सदा।

60- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

जगती का इंसान हर,ईश्वर का है पूत।
ईश्वर का संदेश यह, मानव बने सपूत।।
मानव बने सपूत, कर्म से हो कर पावन ।
रच दे शिव इतिहास,भूमि पर लाये सावन।।
कहें मिसिर कविराय, हरित होती है धरती।
आते यदा सपूत,बनाते सुंदर जगती।।

पावन हिय में शोक का, मिटता नामनिशान।
निर्मल स्वच्छ विचार ही,ईश्वर का प्रिय स्थान।।
ईश्वर का प्रिय स्थान, पूज्य होता है जग में।
पूजन आदर भाव, विचरते उत्तम पग में।।
कहें मिसिर कविराय, धरा हो लोकलुभावन।
इसको संभव जान,अगर मन सबका पावन।।

61- मदिरा सवैया

शिष्य बनो गुरु को पकड़ो अति उत्तम ज्ञान सिखावत जो।
तेज कुशाग्र विनम्र सुसभ्य सुशील विनीत बनावत जो।
सत्यव्रती अति शुद्ध सदैव महान विचार बतावत जो।
बोलत ज्ञान समुद्र अथाह सहायक होय दिखावत जो।

ज्ञान तभी मिलता मन को जब ईश्वर ही गुरु रूप धरें।
मानव सीखत है तबहीं जब ईश्वर ही उपकार करें।
धर्म बिना गुरु दर्शन दुर्लभ शिष्य सभी गुरु पाँव परें।
जन्म मनुष्य तभी सुफला गुरु ज्ञान सभी अवसाद हरें।

दुर्लभ हैं गुरु जीवन में मिलते जिनका मन निर्मल है।
पुण्य जमा जिस घाट सदा नित ध्यानमना अति उज्ज्वल है।
नाथ कृपा करते जब भी मिलता गुरु धाम सुशीतल है।
शिष्य सुभाग्य मनावत है जिसका उर स्वच्छ सुकोमल है।

62- मत्तगयंद/मालती सवैया

आ घर वापस दूर रहो मत आपन देश सदा सुखदायी।
जा न विदेश रहो घर में अपना घर मातृ महा वरदायी।
काम करो अपना खुद का अपने बल से रहना शुभदायी।
खर्च करो अति संयम से धन संग्रह ही मधुरा फलदायी।

बात करो अपने जन से सुखसार यही सच में हितकारी।
प्यार करो नित मेल करो अपने मन से बनना प्रियकारी।
मीत बनो दुखिया जन का खुद ही दिखना नित संकटहारी।
भाव समुद्र तरंग उठे अति स्नेह रहे शिव मंगलकारी।

नीति सदा प्रिय सत्य रहे मत झूठ कुपंथ कभी अपनाना।
झूठ कुमार्ग सदा दुखदा यह बात सदा मन को समझाना।
भूल करे मन तो समझाय- बुझाय सदा शुभ काम बताना।
छोड़ अपावन कृत्य सदा सबको प्रियवाहक ग्रन्थ पढ़ाना।

63- किरीट सवैया

प्यार सवार रहे मन में बुधि शुद्ध बने शुभ नाम प्रसारण।
गाँव-गिरांव रहे मनमोहक मानव हों अति स्नेह परायण।
राम सुसंस्कृति विस्तृत हो हरि धाम बने हर गेह रमायण।
सुंदरता प्रिय सौम्य लगे नित होय सुखान्तक दृश्य प्रचारण

सत्य दिखें प्रतिमान सभी छवियाँ मनहर्षक शीघ्र सुहावन।
गीत लिखें सब प्रेम पिपासु सुनें सब गान-बजान लुभावन।
जाम लगे प्रिय सन्तन का सब दान करें शिव अक्षर पावन।
मूल्य सभी अनमोल बहें मन की हर वृत्ति बने शिव पावन।

64- पुरुषोत्तम कुण्डलिया

रहना सीखो प्रेमवत, कर ईश्वर को याद।
आजीवन करते रहो, ईश्वर से फरियाद।।
ईश्वर से फरियाद,देत है सबको वांछित।
मनोकामना पूर्ण, सकल मन में जो संचित।।
कहें मिसिर कविराय, बात सब उनसे करना।
“ईश्वर शरणं गच्छ”, चरण में उनके रहना।।

ममता रख श्री राम से, चल उनके ही संग।
राम रंग सबसे सुखद, अन्य रंग वदरंग।।
अन्य रंग वदरंग, राम का रोगन पावन।
मन होता खुशहाल, देखता शिव का सावन।।
कहें मिसिर कविराय,राम में जो भी रमता।
उसके उर में वास, सदा करती है ममता।।

समता पावन मंत्र का, नित करना अभ्यास।
सतत चलो बढ़ते रहो,करते रहो प्रयास।।
करते रहो प्रयास, त्याग दो सकल निराशा।
मानवता का वेश,जगाये जग में आशा।।
कहें मिसिर कविराय, सुखी हो सारी जनता।
जब आये संतोष,मनुज में जागे समता।।

65- मदिरा सवैया

बोलन में कुछ दाम नहीं लगता बस उत्तम मोहक हो ।
मोहन की मुरली मनरंजक धन्य सदा सुख पोषक हो।
सभ्य बने सबकी रसना सबका मन शंकर बोधक हो।
मन्थर -मन्थर वायु बहे प्रिय शीतल कष्ट सुमोचक हो।

मानव की प्रतिमा शिवशंकर सी अति भावुक कोमल हो।
ज्ञान सदा शुभमान बने प्रतिमान सुवासित निर्मल हो।
अंतिम श्वांस चले जब ले हर वृत्ति सुलोचन उज्ज्वल हो।
धूप स्वभाव बने अति पावन छाँव करे नित शीतल हो।

प्रेम स्वरूप दिखें घनश्याम सदा अनुराग प्रभाव मिले।
दिव्य स्वभाव सनेह लिखे पतिया नित प्रीति शिवाय खिले।
कौशल -ज्ञान खिले सब में हर मानुष में शुभ भाव पले।
दान-दया-करुणा रस सागर में शिव वायु सदा मचले।

66- पुरुषोत्तम कुण्डलिया

शिवता के निज रूप को, मूलरूप से जान।
जान लिया जिसने इसे, वही निकट भगवान।।
वही निकट भगवान, चलत बनकर कल्याणी।
सबके प्रति कर्तव्य-बोधमय बनता प्राणी।।
कहें मिविर कविराय, मनुज सत्कर्मी बनता।
देता मन को दान, बहे जब उर में शिवता।।

प्रियता ही सर्वोच्च है, प्रिय बनना ही धर्म।
प्रिय मानव बनता वही, जिसके पावन कर्म।।
जिसके पावन कर्म, जगत में नाम कमाता।
रखता मोहक सोच, सदा उच्चासन पाता।।
कहें मिसिर कविराय, रखो मन में नित शुचिता।
पावन लोक विचार, दिलाते सबको प्रियता।।

बनता सहज सहिष्णु वह, जिसके भाव उदार।
सबके प्रति सम्मान का, रखता सुखद विचार।।
रखता सुखद विचार, सोच अति उत्तम व्यापक।
समता में विश्वास, लोक ममता का जापक।।
कहें मिसिर कविराय, जगत में जो भी सहता ।
अत्युत्तम इंसान, वही धरती पर बनता।।

67- प्रीति

प्रीति सदा मनमोहक हो।
स्वाद सदा अति दिव्य रसा।।
पावन भाव रहे सब में।
मादक मोहक स्वस्थ कसा।।
मोहित हो जगती सगरी।
हो सुखसाधन वायु बसा।।
भूमि अमी रस को उगले।
वंधन प्रेम सदा सुत सा।।
अंध मिटे जग में प्रतिभा।
सावन भाव बहे सहसा।।

68- नमन (चौपाई)

नमन सदा स्वीकार करो मम।
होना कभी नहीं तुम निर्मम।।
हाथ जोड़ कर मैं कहता हूँ।
तेरा अभिनंदन करता हूँ।।

वंदन को इंकार न करना।
मर्यादा को तार न करना।।
हृदय भाव को जो समझेगा।
वही विश्व का मीत बनेगा।।

छिपा हुआ है प्रेम नमन में।
सात्विकता का वृक्ष नमन में।।
खुले हृदय से स्वागत करता।
सबको मित्र बनाते चलता।।

आदर मधु सम्मान बाँटता।
अंतहीन परिधान बाँटता।।
नहीं किसी से याचन करता।
नियमित स्वस्तिक वाचन करता।।

हो नमनीय प्रणम्य सदा तुम।
वंदनीय शिव पूज्य सदा तुम।।
गले लगाने की चाहत है।
इसके बिन मन मर्माहत है।।

नमन नमन हे प्रिय भवसागर।
प्रेमरूपमय यज्ञ सुधाकर।।
प्रभु बनकर वंदन स्वीकारो।
इस निरीह पर अद्य विचारो।।

69- मदिरा सवैया

प्यार किया पर बात नहीं बतला मन मीत कहूँ किससे।
बेघर प्यार किया अब तो निकला यह पागल है घर से।
खूब बना यह राह बिसार फँसा भ्रम जाल गिरा अब से।

प्यार उधार कहाँ मिलता गिरता यह केवल है नभ से।

प्यार करो पर आस नहीं बस बाँट इसे चलते रहना।
प्यार करो मन से मितवा मत माँग सदा डरते चलना।
दान महा यह है जग में मत याचक सा बनते दिखना।
खोल खड़ा रह संगम सेतु सदा दिल में घुलते बहना।

प्रीति बनो जग मीत बनो सुखधाम रचो शिव ग्राम गढ़ो।
सैर करो अपने पग से शुभ कर्म करो शिव श्याम पढ़ो।
प्रीति शरीर स्वयं बन जा अशरीर बने खुद अग्र बढ़ो।
साँच सुपंथ सुनीति रचो खुद ही चल ताप जलाय कढ़ो।

70- किरीट सवैया

राघव माधव को समझो इक नाम अनाम सुनाम सुसज्जन।
सन्त समागम में रमते रहते उर में करते शुभ चिंतन।
राग न द्वेष कभी मन में हर जीव सहोदर सन्तति अंजन।
दुष्ट विनाशक रक्षक साधु सुसंस्कृति का करते नित मंथन।

दर्प घमंड नहीं करते प्रभु राघव माधव रावण रोधक।
कंस रहे न कभी जग में मिट जायँ सदा शुभ के अवरोधक।
दे न कुवंश कभी जगती धरती पर हों शिववंश सुपोषक।
राम बनें सब कृष्ण बनें सब राघव माधव वंश सुबोधक।

71- हरिहरपुरी के सोरठे

मेरे प्यारे प्राण, मिथ्यचारी मत बनो।
साधू का परित्राण, करते रहना रात-दिन।।

मेरे जीवन मूल्य,शिव मूल्यों में नित रहें।
ईश्वर के समतुल्य, बनने की कोशिश करो।।

ईश्वर प्राणाधार, इन्हें जिलाये नित चलो।
निर्विकार की धार, बहे निरन्तर प्रेमवत।।

छोड़ सकल अभिमान, राम सनेही बन चलो।
हो समत्व का ज्ञान, यही योग सबसे मधुर।।

पाण्डव सभ्य महान, पाण्डव संस्कृति को गहो।
बढ़े विश्व में मान, उनका जो त्यागी पुरुष।।

बनो सहज चितचोर, कान्हा का संदेश यह।
नाचो जैसे मोर, रच सुंदर मौसम मधुर।।

बनो स्वच्छ इंसान, चालचलन हो दिव्यतम।
मिले सत्य सम्मान, जिसके भाव मृदुल सहज।।

पकड़ सत्य की डोर, आजीवन चलते रहो।
बन जा माखनचोर, कृष्ण कन्हैया रूप में।।

मत करना तकरार, शांति पंथ सबसे सुगम।
वह जीवन बेकार, धन अति लिप्सा है जहाँ।।

72- डॉ० रामबली मिश्र विरचित वर्णिक चतुष्पदी

रमते चलना बढ़ते रहना।
उर दाहक घाव भरा करना।
सबके प्रति दृष्टि दयामय हो।
करुणा रस धार बने बहना।।

सबकी सुनना मत वाद करो।
अति पावन हो शिव नाद करो।
अतिवाद कभी करना मत रे।
सुखवाद रचो दुखवाद हरो।

प्रण हो मन में सब स्वस्थ रहें।
सबके हित में सब व्यस्त रहें।
सबमें शिव भाव वटांकुर हो।
सब प्राणि सदा अति मस्त रहें।

73- मदिरा सवैया

प्रातः काल उठो प्रभु के चरणों पर आपन शीश झुके।
देखि सुहावनि निर्मल मूरत प्रेममयी खुद माथ टिके।
वंधन में प्रभु के रहना उनका अभिनंदन ही मन के।
नाचत ब्रह्म कमण्डल ले हर जीव सुखाकुल दर्शन के।

74- मदिरा सवैया

जागत पावत सोवत सोचत जाग निरन्तर काम करो।
स्वर्णमुखी सुमुखी बनना हित कर्म करो शुभ धाम धरो।
चिंतन पावन नित्य करो अनुकूल सदा जग में पसरो।
भूमि धरा मनमोहक हो सगरी धरती पर नित्य चरो।

75- ममता (सजल)

ममता, तेरी याद सुहानी।
कभी न करती हो मनमानी।।

सजल नेत्र से बातें करती।
तुम अति भावुक सरल लुभानी।।

जेहन में नित बसी हुई हो ।
गंगा जैसी परम पावनी।।

अतिशय कोमल सरल चित्तमय।
परम विनम्र सुसभ्य सावनी।।

नहीं किसी से याचन करती।
प्रेम बाँटती सहज दीवानी।।

सकल चराचर बसता दिल में।
बनी हुई तुम अमर कहानी।।

तन-मन-उर अमृत की सरिता।
बहती तेरी सुभग जवानी।।

तुम ब्रह्माणी सर्व शक्तिमय।
सर्वेश्वरि सर्वोच्च भवानी।।

तुम अकाट्य आराध्य सुधासम।
अजर अमर भव्या कल्याणी।।

76- डॉ०रामबली मिश्र विरचित वर्णिक चतुष्पदी

कहते रहना शिवराम हरे।
जपते बढ़ना घनश्याम घरे।
प्रभु से मन से नित प्यार करो।
उनसे सबका घर-द्वार भरे।

तन धन्य वही जपता हरि को।
मन सभ्य वही रटता हरि को।
हरि संग रहे वह मानव है।
उर भव्य चला करता हरि को।

शुभ कर्म करो शिव पंथ गहो।
अति स्नेह अथाह समुद्र रहो।
मत क्रोध करो परिताप नहीं।
बन शीतल वायु सुगंध बहो।

रच प्रेम जगो सबमें बसना।
प्रिय नीति सुरज्जु सदा बरना।
सबके मन को अपने मन से।
नित बाँध सदा चलते रहना।

77- मदिरा सवैया

पावन सावन से हरषे जियरा खुश हो जब नाचत है।
डोलत है मनवा अति चंचल मौसम हाल सुनावत है।
खोजत है अपना मनमीत सुराग नहीं मन पावत है।
सावन को जब मानत मीत स्वयं शिवशंकर आवत है।

78- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

तारक सारे जीव का, परमेश्वर भगवान।
जिस मानव की वृत्ति यह, वही दिव्य श्रीमान।।
वही दिव्य श्रीमान, जगत का उत्तम प्राणी।
करता उसको पार,बझी है जिसकी गाड़ी।।
कहें मिसिर कविराय,बनो दुख का उद्धारक।
मारो ऐसा मंत्र,बने जो उत्तम तारक।।

मारो कुटिल प्रवृत्ति को, दुर्योधन को मार।
रावण दूषित भाव को, बने राम ललकार।।
बने राम ललकार, यही त्रेता कहता है।
आया द्वापर काल, सदा कान्हा रचता है।।
कहें मिसिर कविराय, भूमि को सहज उबारो।
बनो राम श्रीकृष्ण, दनुज- दैत्यों को मारो।।

संकटमोचन जो बना, कहलाया वह वीर।
महावीर हनुमान बन, लिया गदा गंभीर।।
लिया गदा गंभीर, कमर असुरों का तोड़ा।
किया वार पर वार, मुष्टिका से मुँह फोड़ा।।
कहें मिसिर कविराय, करो जीवन में शोधन।
कर सीता की खोज,बनो प्रिय संकटमोचन।।

रचना सुंदर स्वयं की, करता सदा सुजान।
अपनी त्रुटियाँ ढूढ़ता,सदा विवेकी ज्ञान।।
सदा विवेकी ज्ञान, पंथ तार्किक है चाहत।
करता बुद्धि प्रयोग, नियोजित पाता राहत।।
कहें मिसिर कविराय, नित्य गलती से बचना।
जीवन बने महान, ईश सा खुद को रचना।।

मानव बनने के लिये, कर उत्तम कर्तव्य।
आगे रख आदर्श को,यह अति निर्मल भव्य।।
यह अति निर्मल भव्य, दिव्य इसका दर्शन है।
सत्य शुभ्र शिवमान, मधुर इसका स्पर्शन है।।
कहें मिसिर कविराय,मार जगती का दानव।
सद्विवेक -सद्ज्ञान,बनाता सुंदर मानव।।

79- डॉ०रामबली मिश्र विरचित वर्णिक चतुष्पदी

साधन हो अति उत्तम तो सब।
लक्ष्य सदा अपने कर लो तब ।।
संभव जीवन में सब है सुन।
सुंदर काम दिखे सबको अब।।

साधन पावन हो सुषमा अति।
मानव में जब हो गरिमा गति।।
काम बसे हरिधाम सदा नित।
वृद्धि करे सबकी प्रतिमा मति।।

साधन धाम सु-स्वच्छ रखो मन।
देह निरोग रहे सबका तन।।
वात रहे अनुकूल सदा शिव।
मानुष हो अति निर्मल सज्जन।।

80- हरिहरपुरी के रोले

रचना करना नित्य, लेखनी चलती जाये।
कविता का उन्माद,हृदय में अब छा जाये।।

सुखद विचार-विमर्श, सदा करते रहना है।
मेल-जोल का भाव, सदा जन-जन भरना है।।

रच साहित्य महान, लिखो अति पावन कविता।
सबके मन को मोह,बहे शब्दों की सरिता।।

कर सबका उपचार,कलमकार बनकर बहो।
रखना मधुर विचार,मानव बनकर नित रहो।।

कलम शक्ति का ज्ञान,करा दो हर मानव को।
खिले गुलाबी पुष्प, भगाओ हर दानव को।।

सभी रसों का ज्ञान,कराये सबको लेखन।
रहे वर्तनी शुद्ध, व्याकरण बैठे जेहन।।

छंदों में दातव्य, भाव का नित आलम हो।
उत्तम वैश्विक मेल, सहज पावन “कालम” हो।।

81- जीवन दर्शन

आँसुओं से कहो गीत बनकर बहें।
लेखनी से कहो गीत लिखती रहे।
धार आँसू की गिरती चले नित सहज।
गुनगुनाता रहूँ गीति बनती रहे।

लोक में देवताओं का शासन रहे।
कण्ठ में शारदा का सु-आसन रहे।
मन का मालिन्य बह कर निकल जायेगा।
दिल में अच्छे विचारों का सावन रहे।

संसार सागर में शुचिता रहे।
सबके मन में समादर सुप्रियता रहे।
मत समझना किसी को पराया कभी।
नीर बहता रहे प्रीति गाती रहे।

नीर से कहते जाना मचलता रहे।
नींद में भी पिघल कर लुढ़कता रहे।
नींद ही नीर की प्रेमिका हो सदा।
नींद गमके सतत नीर हँसता रहे।

82- भावुकता (चौपाई)

भुवुकता को प्यार चाहिये।
अति सम्मोहक यार चाहीये।।
मन से साफ-स्वच्छ जो होगा।
वह भावुक के दिल में होगा।।

भावुकता अति प्रेम दीवानी।
प्रेम महल की है वह रानी।।
उसको केवल प्रीति चाहिये।
नहीं कदापि अनीति चाहिये।।

स्वाभिमान ही उसका जीवन।
अतिशय पावन कोमल अज मन।।
देवशक्तिमय देवी दानी।
दिव्य भवानी सभ्य सुहानी।।

जिसको भावुकता है प्यारी।
वह रचता सुंदर सुकुमारी।।
धरती का वह मान बढ़ाता।
मानवता का ज्ञान कराता।।

भावुकता को जो सहलाता।
वह गंगा में नित नहलाता।।
उसका कोई जोड़ नहीं है।
इस जग में बेजोड़ वही है।।

भावुकता गुलाब से ऊपर।
महा सुगन्धित ज्ञान विप्रवर।।
भावुकता को जिसने जाना।
वसुधा को कुटुंब सा माना।।

अतिमानवप्रेमी भावुकता।
पूर्णरूप से भरी सहजता।।
सरल चित्त अति निर्मल वदना।
कहती रहती मोहक वचना।।

अति सम्मोहक मंत्र यही है।
सुंदरता का तंत्र यही है।।
इसको केवल प्यार चाहिये।
दुर्लभ सुजन सवार चाहिये।।

अतिशय मीठा यार चाहिये।
साफ-पाक घर-द्वार चाहिये।।
मृदुल स्नेह साकार चाहिये।
अमृतमय रसधार चाहिये।।

83- आत्मदर्शन

प्रेम के विश्व का नित्य विस्तार हो।
पावन सहज साख्य किरदार हो।
सब रहें स्नेह के सिंधु में डूबते।
मन में शुचिता सरलता शिवाकार हो।

पापनाशक बने हर मनुज का हृदय।
यान पुष्पक का दिल में सदा हो विलय।
मान-अपमान के पार बस्ती बने।
एक हो कर बहें सर्व सुर-ताल-लय।

सच्चा सुघर विश्व साकार हो।
लोकमण्डल परम दिव्य परिवार हो।
मत लड़ाई कभी देखने को मिले।
शांति के दूत का आज दीदार हो।

लोग कंधे से कंधा मिलाकर चलें।
भावना में मृदुलताएँ सादर पलें।
गंदगी को भगाना जरूरी बहुत।
आज विपदा सकल इस धरा पर जलें।

गंगधारा निरन्तर प्रवाहित रहे।
सन्धि मानव हृदय में प्रकाशित रहे।
सभ्यता की उड़ानों में प्रिय वेग हो।
अब मनुज मन की काया सुवासित रहे।

ज्योति प्रेमान्ध हो नित्य जलती रहे।
गीतिका लेखनी स्तुत्य लिखती रहे।
अब नहीं दो रहें एक ही बन दिखें।
कामना मन में शुभदा पनपती रहे।

84- प्रेम (दोहे)

श्रद्धा अरु विश्वास से ,बना हुआ है प्रेम।
यह जीवन का मूल्य हो, इससे श्रेष्ठ न हेम।।

जिसको छू दे प्रेम वह, बन जाये प्रिय धाम।
प्रेम रहित हर जीव के, जीवन में है शाम।।

सदा प्रेम के नाम को, जो करता बदनाम।
जगत उसे धिक्कारता, ले कर गन्दा नाम।।

कलुषित मन में प्रेम का, कभी न खिलता फूल।
मरघट बनकर घूमता, करता सब प्रतिकूल।।

सात्विक प्रेम समुद्र को, समझो क्षीर विहार।
लक्ष्मीनारायण यही, करते जग से प्यार।।

प्रेम अनंत विशाल है, फैला है चहुँओर।
कण-कण आपस में मिले, बंधे प्रेम की डोर।।

अज्ञानी की दृष्टि में, प्रेम विखण्डित सीम।
प्रेमशास्त्र उद्घोष यह, प्रेम अनंत असीम।।

यह परमेश्वर रूप है, शिव सर्वोत्तम भाव।
परम शक्ति इसमें छिपी, दिव्य महान स्वभाव।।

जिसने समझा प्रेम को, बचा नहीं कुछ शेष।
पोथी पढ़कर क्या मिला, अगर न प्रेम विशेष।।

रंग-रूप है प्रेम का, प्रिय मोहक अत्यंत।
यह अति पावन दिव्य धन, जिसे ढूढ़ते संत।।

बहुरंगी सा चमकती, प्रेम रत्न की खान।
इसके आगे शून्य है, सारा सकल जहान।।

निंदनीय वह जगत में, जिसे न अच्छा प्रेम।
प्रेमी उर ही करत है, वहन योग अरु क्षेम।।

85- प्रेमदर्शन (कुण्डलिया)

दर्शन करना प्रीति का, चमकीला उपहार।
इसको रखना हृदय में, यह उत्तम उपचार।।
यह उत्तम उपचार, रसायन यह अमृत है।
रखती दिल का ध्यान, बचाती यह बूटी सत्कृत है।।
कहें मिसिर कविराय, हृदय में रख कर चुंबन।
करना पूजन नित्य, नित्य कर स्पर्शन दर्शन।।

पालन करना नियम का, प्रेम रीति जग सार।
सच्चे भावुक मन सलिल, में नित इसे उतार।।
में नित इसे उतार, हृदय रंगीन बनेगा।
चले सुगंधित वायु, दुष्ट मन रोग जलेगा।।
कहें मिसिर कविराय, प्रेम का करना लालन।
इसको सदा निखार, करो शिशु जैसा पालन।।

पाया जिसने प्रेम को, पाया वह भगवान।
पाया वह सर्वस्व है, बन कुवेर धनवान।।
बन कुवेर धनवान, प्रेम रत्न धन
बाँटता।
हो सबके आसन्न, तिमिर को सदा काटता।।
कहें मिसिर कविराय, प्रेम को जो भी गाया।
बना जगत में श्रेष्ठ, प्रेम को निश्चित पाया।।

86- गुरुदर्शन (सजल)

गुरुदर्शन से सब मिलता है।
गुरु से ही जीवन फलता है।।

गुरु बिन अंधकार धरती पर।
बन प्रकाश गुरु खुद चलता है।।

गुरु ही जग को राह बताता।
गुरु से ज्ञान सहज पलता है।।

गुरु ही रचनाकार लोक का।
बिन गुरु यह जीवन खलता है।।

गुरु शिष्यों के दुख को हरता।
रोग भयानक नित गलता है।।

ज्ञान और विज्ञान दान कर।
गुरु शिष्यों में खुद हलता है।।

गुरु का स्नेह वरद अति पावन।
दुष्ट शिष्य गुरु से जलता है।।

श्रद्धा अरु विश्वास ज्ञानमय।
श्रद्धाहीन हाथ मलता है।।

गुरु का कृपा-प्रसाद दिव्यतम।
गुरु को पा कर दुख टलता है।।

गुरु चरणों में शीश झुके जब।
सकल पाप जल्द धुलता है।।

सद्गुरु मिलते बड़े भाग्य से।
सद्गुरु पा कर मन खिलता है।।

गुरु को जो अपमानित करता।
उसका कंपित दिल हिलता है।।

जो गुरु की सेवा करता है।
उत्तम साँचे में ढलता है।।

गुरुद्रोही अवनति पथगामी।
अपने को खुद ही दलता है।।

गुरु ही सर्वश्रेष्ठ धरती पर ।
गुरुसेवक हरदम हँसता है।।

87- खोज उसे…(चौपाई )

खोज उसे जो गुणग्राहक हो।
जो गुणसंग्रह के लायक हो।।
अभिवादन मंजूर जिसे हो।
संपादन प्रिय नूर जिसे हो।।

जो सबको सम्मानित करता।
उच्चासन पर स्थापित करता।।
जो भी श्रेष्ठ समझता सब को।
सदा तवज्जो देता जग को।।

जिसमें कुंठा नहीं व्याप्त है।
आत्मतोष शुभ वृत्ति प्राप्त है।।
जिसका मन है पावन सागर।
कहता रहता उत्तम आखर।।

लोकातीत मूल्य का सेवन।
मनभावन रचना का लेखन।।
पूजन करता इस जगती का।
सहयोगी सारी धरती का।।

सच्चाई का प्रिय अनुरागी।
लौकिक माया का वितरागी।।
ईश्वर का आदर्श जहाँ है।
वह गुणग्राहक खड़ा वहाँ है।।

भावुकता ही अतिशय प्यारी।
मौलिकता ही अति प्रिय न्यारी।।
शिव पावन गुणवान चाहिये।
खोजी को भगवान चाहिये।।

दीन दशा को लख जो रोता।
दुख घावों को दिल से धोता।।
खोजो ऐसे ही प्रियवर को।
गुणसम्पन्न सहज रघुवर को।।

स्वयं स्वर्ग बन जो आया हो।
कुदरत सी करता छाया हो।।
गुण ही जिसका प्रिय भोजन हो।
उच्च भावना शत योजन हो।।

88- मदिरा सवैया

प्रेम समंदर देख सदा अपने मन को हरषाय चलो।
योग करो सहयोग करो दिल से मन आग बुझाय चलो।
प्रेम अदृश्य नहीं जग में यह दृश्य “सुखाय” बताय चलो।
देख तरंग छटा अँखियाँ मन होय विभोर तराय चलो।

ध्यान धरो शिव में बस जा यह सावन मास सुहावन है।
पावन पुण्य करो सुफला शिवशंकर का यह सावन है।
सावन माह सदा मनमोहक सोम महा मधु भावन है।
सोम चढ़े शिवशंकर द्वार बजावत दुंदुभि पावन है।

89- डॉ०रामबली मिश्र विरचित वर्णिक छंद
मापनी- 211,211,211,2

संगम हो भल मानुष का।
संग मिले न अमानुष का।।
जीभ प्रणाम करे सबको।
भाव सुगन्ध मिले जग को।।।

सन्त मिलें शिव राम कहें।
ओम दिखें मनमस्त रहें।।
बात करें दिल खोल सदा।
मोहक सृष्टि रचें सुखदा।।

उत्तम कोटि बने धरती।
सत्य कहे सगरी जगती।।
मोहक रूप विचार रहे।
मानव अमृत बात कहे।।

आदत में शिवराम रहें।
कर्म सदा घनश्याम कहें।।
मानव ज्योति जगे जग में।
दिव्य सुचाल रहे पग में।।

90- पवित्रता (वर्णिक चौपाई)
मापनी 112 112 112 112

रहता मन में जब पाप नहीं।
बसता हरिधाम सुजाप वहीं।।
सुखदायक स्थान वहीं बस है।
मन पावन ग्राम जहाँ अस है।।

चलता मन ईश पुकारत है।
अपना घर-द्वार बसावत है।।
दुख-कष्ट सदैव बुझावत है।
जब रामलला अपनावत है।।

अपने मन को समझाय चलो।
शुभ पावन वाक्य बनाय चलो।।
मत पाप करो मत सोच कभी।
अपना समझो मनमीत सभी।।

मन को समझो यह स्वच्छ रहे।
शिव ग्रन्थ पढ़े हर कष्ट सहे।।
जितना मन साफ रहे सुधरा।
उतना यह विश्व रहे सुथरा।।

दुख-शोक भगे मन निर्मल हो।
अनुराग-विराग सुकोमल हो।।
सबकी रसना पर ब्रह्म रहें।
सब मानव उन्नत पंथ गहें।।

जब जाप हिताय चला करता।
उर में शुचि भाव बना बहता।।
कदमों पर शीश झुके सब का।
मनमाफिक रूप बने मन का।।

91- भवसागर

अत्यंत भयावह
बहुत दुखद
तन-मन दुखी
कोई नहीं सुखी
लोग अनायास ऐंठ रहे हैं
लंका में बैठ रहे हैं
धनमद में चूर
धर्म से बहुत दूर
आनंद काफूर
स्वयं चकनाचूर
दुख आता है
कष्ट पहुँचाता है
रोने के लिये विवश करता है
स्वयं हँसता है
यमदूत है
महा कपूत है
अचानक आता है
मार गिराता है
डटा रहता है
मन से सटा रहता है
नालायक है
रोगदायक है
इसे भगाओ
मन को समझाओ
इसे स्वीकार कर ही भगाया जा सकता है
मन को मनाया जा सकता है
विषपान करो
नीलकण्ठ बनो
शिवजाप करो
मत पाप करो
दुख दूर होगा
शिवयोग होगा
सावन आयेगा
शिवसोम गायेगा
डमरू बजायेगा
मन को पुनः सजायेगा।
सब्र कर
आगे बढ़
चला कर
मत हिला कर
वीर हो
साहस का परिचय दो
उत्साह को प्रश्रय दो
रोना नहीं, हँसते रहना
निरन्तर एवरेस्ट पर चढ़ते रहना।

92- दुर्मिल सवैया

अभिषेक करो शिवशंकर का व्रत ले शिव नाम जपा करना।
मन ही शिव काम करे सहजा मन में मत पाप कभी रखना।
सबके प्रति भावुक वृत्ति रहे मत क्रोध करो प्रिय सा रहना।
अति शांत बने हर जाप करो हर काम शिवाय सदा चलना।

शिव सावन में शुभ काम करो यह माह सुहावन है सुखदा।
इस मास चलो जपते शिव को शिववार महोत्सव है वरदा।
समझो अपना शुभ भाग्य जगा यह सावन है उपमा फलदा।
रहते अविराम खड़े चलते सबके प्रति मोहक रूप सदा।

सबको शिव दान दिया करते अति भावुक हो सबसे मिलते।
खुश हो कहते चलते सबसे सब शांत करें जग को जलते।
सबमें अतिमानव प्रेम पले शुभ मानव मान दिखे फलते।
बल -पौरुष का उपयोग सहर्ष सहाय सुखाय शिवाय मते।

मनमस्त सदा शिवशंकर का हर रूप निराल लुभावन है।
शिवशंकर का यह सावन उत्तम पावन भव्य सुहावन है।
अति शीघ्र प्रसन्न सदा शिवशंकर प्रेम निधान स्वभावन है।
मिलिये इस विप्र महा मुनि से यह देव महा बहु पावन है।

93- वर्णिक चतुष्पदी
मापनी-211,211,211,211

घातक है सहसा घटना सुन।
जान अजान चली जलती हुन।।
राम नहीं तब आवत जागत।
अंत बुरा दिखता सिर को धुन।।

मानस मारत है खुद को तब।
चित्त सहाय नहीं लगता अब।।
व्याकुलता बढ़ती नित आवत।
आस निराश बढ़न्त सदा सब।।

सत्य यहीं लगता तब है कुछ।
घाट श्मशान धरा यह है कुछ।।
आकुल चिंतित व्यर्थ अनर्थ।
आवत बात नहीं हिय में कुछ।।

94- हरिहरपुरी के रोले

ममता मानव वृत्ति,सहज पहचान दिलाती।
दुख के आँसू पोछ,जगत को दूध पिलाती।

ममता खाती मार, मनुज जब होत अमानुष।
ममता से संवाद,नित्य करता है मानुष।।

ममता में है स्नेह,भाव की पावन सरिता।
ममता अमृत तुल्य, रचा करती प्रिय कविता।।

यह संवेदनशील, दिव्य पावन हितकारी।
ममता का शुभ राज्य, लोकमंगल शिवकारी।।

ममता को मत त्याग, पकड़ इसकी प्रिय बाहें।
यह मधुमय जीवंत, दिखाती दैवी राहें।।

ममता की नित राह, पकड़ कर चल आजीवन।
सब जीवों में बैठ,रचो सुंदर मन उपवन।।

95- प्रेम गंगा (सजल)

प्रेम गंगा हृदय में उमड़ती रहे।
मेरे प्रीतम की आँखों में सजती रहे।।

आज होगा मिलन आसरा है यही।
दिल की चाहत स्वयं राह चुनती रहे।।।

मन दीवाना हुआ अब दरश के लिये।
प्रीति की आग अविरल दहकती रहे।।

प्रिय मिलेगा सुनिश्चित अटल बात यह।
मन में प्रेमग्नि नियमित दमकती रहे।।

छोड़ना है नहीं पंथ स्नेहिल सुघर।
प्रेम की भावना नित धधकती रहे।।

है विश्वास बहुलक है श्रद्धा अमित।
प्रीति की शक्ति मधुरा गमकती रहे।।

प्रीति आयेगी घर पर हृदय खोल कर।
नेह की राह हरदम चमकती रहे।।

आज प्रियतम भी व्याकुल बहुत व्यग्र है।
वृत्ति पाने की कोशिश चहकती रहे।।

मन की कुण्ठा जलेगी मिले प्रिय अगर।
प्रेम सरिता से नीरा टपकती रहे।।

प्रीति भूली नहीं याद रखती सदा।
वह कठिन राह को पार करती रहे।।

96- हरिहरपुरी के सवैये

दुर्मिल सवैया-

मत मार करो तकरार नहीं सबसे मिल नेह लगाय चलो।
प्रिय भाष करो प्रतिवाद नहीं शुभ सोच रखो यह भाव भलो।
मत मार करो मत वार करो हिय शुद्ध रखो खुद ही बचलो।
भगवान सदा कहते सबसे बस काँट बचाय सदा चल लो।

मदिरा सवैया-

मान रखो हर मानव का अपमान नहीं करना सुन रे।
मीत बने चलते रहना शुभ वृत्ति सदा पनपे मन रे।
गेह सदा सुख का बनना गढ़ना खुद को अति सज्जन रे।
गीत मनोहर बोल सखे करते रहना मनरंजन रे।

मत्तगयंद/मालती सवैया-

श्वेत रहे परिधान सदा मत कीचड़ पोत कभी चलना है।
मानवता बस हो उर में अति निर्मल अंतस को करना है।
साफ किया करना मन को शिव भाव विचार सदा भरना है।
तैर चलो सुख सैर करो उस पार समंदर के बसना है।

किरीट सवैया-

संकटमोचन जो बन जाय वही जग में हनुमान कहावत।
राक्षस से परहेज करे वह राम दसानन मार गिरावत।
भाव जहाँ सबके हित में वह शंकर आपन नाम बतावत।
प्रेम करे जड़-चेतन से वह कृष्ण स्वयं सबके मन भावत।

96- आधार छंद
मापनी-212 ,212 ,212 ,212

श्रावणी माह में शंकरी को भजो ।
लोक को त्यागना काँवरी में सजो।
गंग का नीर ही ज्योतिमा को चढ़े।
पार्वती मातु की ओर जाओ बढ़े।
कंध से ले चलो नीर पंचामृता।
जा करो सर्वदा धर्मदा सत्कृता।
पावनी भावना से करो वंदना।
लेपना में सदा नित्य हो चन्दना।
क्रन्दना कष्ट की हव्य होती रहे।
भावना भक्त की मातु ढोती रहे।

97- प्यार का जश्न….(सजल)

प्यार का जश्न हरदम मनाते चलो।
इस महोत्सव को मोहक बनाते चलो।।

जश्न मनता बड़े भाग्य से है सदा।
दिल में उल्लास दीपक जलाते चलो।।

आज का यह दिवस है रूहानी फिजा।
प्रेम से गीत मंगल के गाते चलो।।

तुम मिले थे अकेले दुकेले हुए।
प्रीति को गुदगुदाते हँसाते चलो।।

अब हुआ प्रेम साकार महफ़िल सजी।
दो दिलों की इक धड़कन बनाते चलो।।

प्रेम का रंग फीका न होगा कभी।
सप्त रंगी सुहानी सजाते चलो।।

प्रीति में पीत रंगीन लालिम लिये।
आत्म में आत्म को नित डुबाते चलो।।

लाल धानी चुनर सा सजे मंच यह।
उर की प्रेमिल कथा को सुनाते चलो।।

बह चलो संग में कुछ न सोचा करो।
प्यार के नित्य आँसू बहाते चलो।।

आज देखे प्रणय प्रेम को यह जगत।
इस शुभोत्सव का मतलब बताते चलो।।

यह रुहानी सुहानी कहानी वफ़ा।
राधे-कृष्णा को प्रति पल रिझाते चलो।।

प्रेम कोमल बहुत तोड़ देना नहीं।
गीत-संगीत बन मुस्कराते चलो।।

98- वर्णिक चतुष्पदी
मापनी- 112 , 112 , 112 , 112
रहना इक मानव सा चलना।
अति सुंदर सा सजना बनना।।
करना नित उत्तम काम सदा।
सबके मनमाफिक तू रहना।।

हतभाग्य नहीं शुभभाग्य बनो।
सबके हित का हर काम चुनो।।
बन नेक अनीति करो न कभी।
मनमोहक भावुक जाल बुनो।।

कर कर्म सदा मनभावन हो।
उर से बहता मधु पावन हो।।
मत सोच कभी क्षति की बतिया।
रचते चल लोक लुभावन हो।।

द्रव अमृत हो सबको रख लो।
मधु स्वाद सदा मन से चख लो।।
हर ओर बढ़ो जगमीत दिखो।
लग सुंदर उत्तम सभ्य भलो।।

99- रे सखि! (चौपाई)

रे सखि! सावन बनकर आओ।
अमृत जल से अब नहलाओ।।
नाचो आ मेरे आँगन में।
सदा बरसना मेरे मन में।।

बन जाओ तुम आज बदरिया।
आओ ओढ़ी प्रेम चदरिया।।
कुहूँ-कुहूँ कोयल बन जाना।
मधुर कण्ठ से गीत सुनाना।।

रे सखि!आओ देर न करना।
अंकपास में भर ले चलना।।
आज तुम्हारा प्रेम बुलाता।
अपने अधरों से सहलाता।।

निष्ठुर मत बन जाना सखिया!
बनकर आना प्रेमिल दरिया।।
प्रेम रंग का बन जा सागर।
भर देना यह रीता गागर।।

खो जाना बाहों में आ कर।
बन जा पावन गंगासागर।।
अब हरषाओ मन बहलाओ।
रे सखि!प्रीति सरस बन जाओ।।

मत नाराज कभी तुम होना।
प्रेम पंथ पर ममता बोना।।
प्रेम-अश्रु अब छलक रहा है।
अपलक तुझको देख रहा है।।

तेरे भीतर झाँक रहा है।
निर्मल मन को माँग रहा है।।
बन निसर्ग आ उर के अंदर।
दरिया बनकर बहो निरन्तर।।

झरना बनकर झरझर बहना।
पंछी बनकर कलरव करना।।
चूम-चाट की अलख जगाओ।
बन बसन्त ऋतुराज बुलाओ।।

हरियाली बन धरती पर आ।
कोमलांगिनी तुम उर छा जा।
स्पर्श करो अहसास कराओ।
एकीकरण मंत्र बन जाओ।।

रे सखि!वादा कर मिलने का।
कदम मिलाकर नित चलने का।।
कसम खुदा की तुम आओगी।
जीवन में रस बरसाओगी।।

100- प्रेम छंद
मात्रा भार 16/6
प्रेम करो तो प्रेम मिलेगा, मत तरसो।
मन में स्नेहिल भाव जगेगा, चल हर्षो।
करो सभी का दिल से आदर, अब बरसो।
मिलना सब से हाथ जोड़ कर, नित सरसो।
करना सबकी सदा भलाई, नित्य हँसो।
सेवा ही होती सुखदायी, स्वयं कसो।
प्रेम जगाओ हर मानव में, जाय बसो।
संवेदना जगे दानव में, स्वयं रसो।
हो उत्साह सदा जीवन में, नित गरजो।
ले चल मुरली वृंदावन में, कान्हा जो।

रचनाकार:

डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
ग्राम व पोस्ट-हरिहरपुर (हाथी बाजार), वाराणसी 221405
उत्तर प्रदेश,

Language: Hindi
274 Views
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