क्षितिज
आकाश में विचरते नभचर अनेक,
उड़ती हैं पतंगे रंगित अनेक.
विचरती उतरती दूर नभ में
क्षितिज तक…पंख पसारती,
पर बंधन है, डोर है,
नभचर तो बे-डोर हैं
क्षितिज का रस पतंग ना जाने
एक मृगतृष्णा – क्षितिज भी
पर पतंग भी तो मन भांति चंचल
हवा में गोते लगा छू लेती
आकाश, बादल और अस्पष्ट स्वप्न !
स्वप्न चंचल मन भाँति उड़ते हैं
जैसे पतंग,
पर बँधे हैं, फिर भी उड़ रहे हैं
गोते लगा कर छू जाते
आकाश,बादल,हिमशिखर,
पर मन फिर भी अतृप्त,
अतृप्त हृदय,अतृप्त स्वप्न
अपूर्ण ढूंढता हुआ अपने क्षितिज को!
क्षितिज – मृगतृष्णा
क्षितिज – आलिंगन
जीवन का और जीवन हृदय स्वपन का ा