क्षणिकाएँ
प्रदीप कुमार दाश “दीपक”
दस क्षणिकाएँ : ———
01. स्वप्न
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क्षितिज …….
छूना आसान
छू लूँ ….
व्यर्थ न हो स्वप्न
सहेज तो लूँ पहले
अपने हिस्से के आकाश को ।
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02. भेद
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आदमी ; ईश्वर है
और ईश्वर
एक आदमी ।
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03. नियति
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नीड़ निर्माण का काम
शेष न होगा कभी
तय है क्यों कि ——-
हवा का आना
और हवा के साथ
नीड़ का बिखर जाना ।
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04. बन्धन
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बाँध लिया है
धरती, समुद्र, गगन
भूमि, जल, पवन
जकड़े है अंतः से
बँधा हुआ है मन
बँध गये चरण
आज वह स्वयं
बँध गया बन्धन ।
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05. जिजीविषा
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बनूँ चिड़िया
छूटे न सृजन
रुके न जीवन
चुनूँ तिनके
ले चोंच में आकाश
उड़ जाऊँ
बना लूँ नीड़
देखता रहूँ विजन वन को
सुनता रहूँ
साथी पंछियों के आलाप
गाऊँ नव गीत मधुर
बुलाऊँ प्रिय
वसंत को सोल्लास ।
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06. आकांक्षा
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कविता ; मेरी आत्मा
राह ढूँढती है मोक्ष की
अर्थ की तलाश
भटकते रहे हैं शब्द
लड़ते आपस में
आकांक्षाएँ……
रह जाती हैं वहीं
मिलने नहीं देते शब्द
मेरी चिर आकांक्षाओं को ।
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07. भरोसा
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हवा की परवाह नहीं
तृण-तृण
जोड़ती चली चिड़िया
नीड़ बनेंगे
हौसले देते हैं
उसे भरोसा ।
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08. प्रेरणा
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सुबह के साथ
नई पत्तियों का जगना
पंछियों का चहचहाना
गिरि को फोड़
निर्झर का बहना
कड़ी धूप में ———
रुठे बादलों को
रवि का मनाना
दुख में हँसना
खुशी से रो पड़ना
यही सृजन प्रेरणा ।
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09. सृजन
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कवितायें ……..
सृजन में उसके
जोड़ रहा हूँ शब्दों को
पर मेरी भावनाएँ
जोड़ने नहीं देतीं
मानो एक चिड़िया
नीड़ बनाने
तिनकों को जोड़े जा रही है,
और हवा है ; कि ——–
मशगुल है उड़ाने में
घोंसले को ।
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10. दर्शन
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जीवन जीना ;
नहीं रे ! आसान
अभिनय से
जी सकोगे ?
जीयो……….
रहोगे खूश ।
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■ प्रदीप कुमार दाश “दीपक”
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