क्यों?
स्थाई इस दुनिया में,
कुछ भी रह पाता नहीं,
बहुत कुछ रह जाता है,
जो इंसान कह पाता नहीं,
मन ही मन क्यों घुटता है,
क्यों वास्तविकता अपनी बता पाता नहीं,
छोटी छोटी बातें भी,
क्यों इंसान सह पता नहीं,
किस दिशा में है जीवन इंसान का,
जो बिना स्वार्थ के मुस्कुरा पाता नहीं,
बेमतलब के वहम में,
उलझा रहता अहम में,
मनमुटाव रख सकता है जीवन भर,
तो प्रेम क्यों निभा पाता नहीं,
औरों का मज़ाक बनाने में,
व्यस्त रहता बेबुनियाद बयानों में,
खोखली परिपक्वता दिखाता तब तक,
जब तक ये जीवन ढह जाता नहीं।
कवि-अंबर श्रीवास्तव