क्यों बे ?
क्यों बे ?
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क्यों बे कहा भागा जा रहा है?
एक अपरिचित आवाज आई
मैं ठिठका, सहसा, पीछे मुड़कर देखा
सम्मुख खड़ा था , जर्जर व्यक्ति एक अनोखा ।
ज्ञान पुंज से अलंकृत, क्या इसी कृश काया ने
मेरी गरिमा को है ललकारा
अशिष्ट ने मुझे “क्यों बे” कहकर पुकारा
भला कैसे होता ये संबोधन मुझे गंवारा?
फिर भी संयम से, मृदुल स्वर में मैने पूछा
मुझे इस तरह चलते चलते क्यों रोका?
ये कैसा तरीका है, क्या नही तुम्हे सलीका है?
क्यों बे? कहते हो मुझे, ये कैसी भाषा है?
किसी स्थापित व्यक्ति को , क्या इस तरह टोंका जाता है?
हंसा खिलखिलाकर ,
श्वेत चिबुक पर हाथ फिराया
खरखराती आवाज में
वो ही ” क्यों बे”फिर से दोहराया
कितना भागेगा मुझसे, क्या मैं कोई अछूत हु?
तेरे जीवन का सत्य , तेरा भविष्य दूत हूं।
अपनी आयु से कब तक, तू यूं भागेगा ?
आ गया हूं मेरे मित्र, क्या अब भी न जागेगा ?
तेरे रूप से रचित , तेरा ही चित्र दर्पण हूं,
आने वाले कमजोर क्षणों में , पूर्ण निष्ठ समर्पण हूं।
एक न एक दिन मुझे ऐसे ही आना पड़ता है
राजा हो या रंक , सबको अपनाना पड़ता है।
बहुत कठिन है मुझे , जीवन से विस्मृत करना
चाहे या अनचाहे , हंसकर स्वीकृत करना।
विडंबना है , मुझे कोई चाहता नही
मैं भी ऐसा निर्लज्ज, एक ठौर रुका जाता नही।
मेरा सत्य और आगमन, सचमुच बड़े दर्दीले है
क्या करूं? जीवन के, कुछ दायित्व हठीले है।
मैने नहीं चाहा, ऊर्जा को कभी किसी से चुराना
किंतु काल चक्र का क्रम, मुझे भी तो है निभाना।
विश्वास रख, मेरे मित्र , सहेजकर गले लगाऊंगा
तेरे आप्त जनो से , कहीं अधिक अपनाऊंगा।
वो लोग जिन्होंने तेरे रक्त से , जीवन अपना सींचा है
तेरी क्षीण होती काया से , यकायक हाथ खींचा है
मैं उनसे बड़ा विलग हूं, पूरा साथ निभाऊंगा
अंतिम श्वास तक ,तेरी, साथ चलता जाऊंगा
मुझे अपनाकर जीवन में , कदापि न अमर्ष कर
अपने अनुभव ज्ञान का विमर्श तू सहर्ष कर ।
रचयिता
शेखर देशमुख
J 1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू 2, सेक्टर 78
नोएडा (UP)