क्यों ना नये अनुभवों को अब साथ करें?
रास्तों की सुने या मंजिलों की फरियाद करें,
बीते कल में जियें या नये कल का आगाज करें।
जाती रात में अमावस की घनी परछाई है,
क्या आने वाली रातों में पूनम की छटा छाई है?
इस किनारे पे पहुँच सुकून की सांस हम लें,
या नये किनारों की तरफ कूच का प्रयास करें?
उस बाग में पतझड़ जाने कब से ठहर छाया है,
क्या कभी सावन वहाँ भी रूक कर बरस पाया है?
उन दर्द भरी नज्मों को हीं तनहाई की ढ़ाल करें,
या नये शब्दों और गीतों से तरकस को भरें।
आंसुओं ने भी तो बारिश की बूंदों में हीं जगह पायी है,
क्या बाद इसके इंद्रधनुषी रंगों में लिपट शाम मुस्कुरायी है?
रक्तरंजित भूमि में हीं रुक कर विलाप करें या
नई कोपलों से उस धरती को भरें,
एक हीं पन्ने को क्यों बार बार पढ़ें,
क्यों ना नये अनुभवों को अब साथ करें?