क्योंकि इश्क़ है
हज़ारों फ़ीट ऊपर से
बारिश बेजान ज़मीं को
अपने लम्स का एहसास देने आती है
उसे चूमने आती है
क्योंकि इश्क़ है।
सब्ज़ मेहंदी सिलबट्टे पर पिसने के बाद
किसीके हाथों को रंग जाती है
क्योंकि इश्क़ है।
बिला वज़ह भी दश्त की तन्हाइयों में
नन्हीं सी बुलबुल गाती रहती है
क्योंकि इश्क़ है।
मौसम के थपेडों से लड़कर
सूखकर मुर्झाकर ग़ुलाब फिर खिल जाते हैं
क्योंकि इश्क़ है।
ख़ौफ़नाक अँधेरी रातों में भी
रोशनी के दिए जलाने
महज़ तीन हफ़्तों की ज़िन्दगी वाले
जुगनू अपनी रोशनी फैलाते हैं
क्योंकि इश्क़ है।
दिनभर की थकन उतारकर
खुदकों फिर जलाने के लिए
रोशनी का तोहफ़ा लेकर
शम्स उफ़ुक़ के सीने से निकलता है
क्योंकि इश्क़ है।
उस वीरान गली में जाकर बैठता है
जो एक वक़्त
इश्क़ का मरकज़ हुआ करता था
और वहाँ तब तलक रोता है
जब तक सैलाब की नौबत न आ जाए
क्योंकि इश्क़ है।
एक बड़ा भारी ज़ंग लगा हुआ ताला
देखने के बाद भी
सदियों से बंद पड़े
उस भूरे रंग के दबीज़ दरवाज़े पर
थक न जाने तक
इस उम्मीद के साथ दस्तक देता है कि
वो वादा-शिकन जो सितमगर था
लौटकर ज़रूर आएगा और
दरवाज़ा खोलकर
अपनी जुड़वा आँखों से अश्क़ बहाएगा
और अपने मरीज़ को बाहों में भर लेगा
क्योंकि इश्क़ है।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’