क्या सुधरें…
उनका कहना है कि,
थोडा सुधर जाओ,
वक़्त की नजाकत पे,
थोड़ा ढल जाओ…
क्या कहें उनसे अब,
कितने बिगड़ चुके हैं,
जिन्दगी के थपेड़ों से,
कितने मुड़़ चुके हैं…
क्या क्या ना दाख़िल हुआ,
क्या क्या ना नक्बतें आईं?
कितने पशेमान हुए ,
क्या क्या ना नौबतें आई?
हर राह ने तीखे मोड़ मे,
मेरी रफ़्तार रोक ली,
हर बार गिर के पलटे,
और नसीहत ही ओढ़ ली…
नतीजा ये हुआ कि,
फिर यूँ ही बन गये,
टूटे सौ जगह से ,
और गुस्ताख़ बन गये…
क्या कहें उनसे कि ,
अब छोड़ो चलो जाओ,
वो तो बस यही कहते हैं ,
कि थोडा सुधर जाओ….
© विवेक ‘वारिद’ *
(नक्बत= दुर्भाग्य )