‘क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ’?
आज भाव विचार हैं सो चुके,
ज्यों वर्ण-शब्द सब खो चुके।
शून्य सी चेतना बोध बह गया,
चपल लेखनी का वेग ढह गया।
विषय विलुप्त से कहीं हो गये हैं,
मस्तिष्क में मरु बीज बो गये हैं।
स्वर-व्यंजन पवन उड़ा ले चली,
मसि ने छोड़ दी काग़ज की गली।
दीपक की लौ जल रही लटक मटक,
कलम चाल चल रही अटक अटक।
पलकें झपकती नहीं नयन अपलक,
अश्रु जल बूँद गिर रही छलक ढलक।
भोज पत्र लगता दृष्टि में रेखा रहित,
मन भी हो रहा कुछ-कुछ भ्रमित।
बैठी हूँ अशांत पर दिखती शांत हूँ,
चाँदनी हँस रही मैं जाने क्यों क्लांत हूँ।
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-गोदाम्बरी नेगी