क्या मैं लिखना चाहता हूँ।
आज जाने क्या मैं लिखना चाहता हूँ।
हूँ मैं जैसा वैसा मैं दिखना चाहता हूँ।।
है नहीं चाहत कि गीतों में खनक हो।
बस रुदन सुन ले ह्रदय मैं चाहता हूँ।
मैं न गीतों का सृजन ही कर रहा हूँ।
मैं न ख्वाबों में गमन ही कर रहा हूँ।।
जो सदा से ही ऋचाओं को सजाते।
अब समन उन भाव का मैं कर रहा हूँ।।
क्या लिखूं? की प्रीत का आधार है क्या ।
जीत क्या जीवन समर में हार है क्या।।
या हकीकत को लिखूं सारे ज़हां की।
पर हकीकत भी कही स्वीकार है क्या।।
प्रीत पर लिखना ही है गर गीत कोई ।
प्रेम भी अब बस रहा आखेट कोई।।
नित नए नामों को लिखते उर मिटाते।
अब नहीं है दिल ए शायद रेत कोई।।
हाल कैसे लिख सकूँगा मैं वतन का।
उस भगत के ख्वाब नेहरू के चमन का।।
हाल ये होगा कलम भी रो पड़ेगी।
टूट सकता कायदा भी तो सुख़न का।।
गर मैं आदम पे ही लिखने बैठ जाऊँ।
आइना जा जाके ये किस को दिखाऊँ।।
थी बिधाता की कभी जो श्रेष्ठ रचना।
खो रही इंसानियत कैसे बताऊँ।।
खुद पे लिखने को कलम जो थाम लूँ मैं।
सोचूँ दो पल को जरा विश्राम लूँ मैं।।
लिख सकूँगा क्या जो मुझमे ऐब ही है।
या कि अब इस सोच पे आराम लूँ मैं।।
पर कलम ने लिखने की जब ठान ली है।
फिर कहाँ इसने किसी की मान ली है।।
जो है जैसा वैसा अब लिखना ही होगा।
ना लिखा तो ये कलम का अपमान ही है।।
वेदना हृदय की हर लिखनी पड़ेगी।
ख्वाब की हर कल्पना लिखनी पड़ेगी।।
जो निशा का दम्भ तोड़े, हो उजाला।
अब हमें वो चेतना लिखनी पड़ेगी।।
©आदर्श सिंह राजपूत