क्या बोलूं
वो हैरान है मेरी ख़ामोशी से
मैं बोलूं भी तो क्या बोलूं
शब्दों के अर्थ अनूठे है
होठों के सांकल क्यूं खोलू
बस पढ़ लो मेरी आंखों में
कुछ गहरे सन्नाटे है
एक गूंज छिपी गहराई में
एक आह भटकती है उनमें
कुछ दर्द भी शायद मिल जाए
मन गुम है,शब्दों के मेले में
दिल तड़प तड़प रह जाता है
ऐसे में तुम ही कहो
मैं क्या बोलूं……….
जो भाव कुंडलिनी सा जाग्रत है
जिसकी प्राणप्रतिष्ठा की
वो मूर्त मेरे भीतर है
बंद नयन ध्यानस्थ यहां
ऐसे में मुंह से क्या बोलूं।।