क्या खोकर ग़म मनाऊ, किसे पाकर नाज़ करूँ मैं,
क्या खोकर ग़म मनाऊ, किसे पाकर नाज़ करूँ मैं,
बेपर परिंदा ठहरा,जमीं छोड़ कैसे परवाज़ करूँ मैं,
कोई नही जो आह समझे मेरी,किसे ही आवाज करूँ मैं,
तन्हाई ही बसर करती है हर करवट मेरे,
किसपे नींदे वारूँ, किस लिए तासिर नासाज़ करूँ मैं,
किसी को तो हो मेरे लहज़े से दिक्कत,
कोई हो जिसे बेरुखी से नाराज़ करूँ मैं,
आस्तीन में दाग छिपाए फिरते हैं सफेदपोश लोग,
इनकी शराफ़त को बेपर्दा आज करूँ मैं,
अब एक ताले के होतें हैं कई चाबी,
किसपे भरोसा जताऊं, किसे हमराज करूँ मैं,
उसका चेहरा,लहजा,रंगत, रुतबा,लाजवाब है,
नजर कैसे हटाऊँ उससे कैसे नजरअंदाज करूँ मैं।
©chandra