” क्या कह दूँ “
“क्या कह दूँ”
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तेरे हुस्न की इबादत में
आज क्या कह दू,
चौदहवीं की चांद को भी
तेरा नूर कह दू।
लव्ज लड़खड़ाते हैं मेरे
तेरी हुस्न की चर्चा में,
तेरी लहराती जुल्फो को
मै चनाब कह दू।।
तेरे सुर्ख होंठों की पंखुड़ियों
को गुलाब कह दू,
तेरे नील-नीले नैनो को
मै आकाश कह दू।
होश गवां बैठे है जब से
देखा हूं तेरे नैनो में,
नशा चढ़ा है तेरा इस कदर
जी चाहता है शराब कह दू।।
तेरे गालों के काले तिल को
हुस्न का पहरेदार कह दू,
ढला है हुस्न तेरा जिस सांचे से
मै उसे कमाल कह दू।
लुटा दी ज़िन्दगी मैंने
तेरी हुस्न कि मधुशाला में,
जी चाहता है तेरी संगमरमरी बदन को
मै ताज कह दू।।
घटाओ को तेरी नैनो का
मै काजल कह दू,
फिजाओं को तेरी जुल्फों का
मै आंचल कह दू।
मेरी सांसे भी महकती है
तेरी बदन कि खुशबू से,
बदन की खुशबू को तेरी
फिजा का मै बहार कह दू।।
तेरी बलखाती कमर को
नदियों की धार कह दू,
खिले यौवन के दो फूलों को
इत्र का शैलाब कह दू।
पीकर तेरे यौवन की मधु को
प्याले में,
शाकी हूं तेरा मधु पीने वाला
क्यू ना तुझे पूरी मधुशाला कह दू।।
तेरी खनकती हंसी को
सुरो की साज कह दू,
तेरे यौवन की महकती
बगिया को कवल कह दू।
चुरा के चैन मेरे दिल का
नहीं मजा है इतराने में,
ओ सत्येन्द्र सुंदरी तुझको मै
अपने ख्वाबों की ग़ज़ल का दू।।
“””””सत्येन्द्र प्रसाद साह(सत्येन्द्र बिहारी)””””””””””””