कौन हूँ?—–मैं?
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रोपता हूँ हर वर्ष मैं अपना अविभाजित भविष्य।
देखता हूँ मेरे देह पर लिपटा हुआ मेरे शव का दैत्याकार दृश्य।
काटता हूँ कोई न कोई अपना कुपोषित विकृत अंग
भूख को ससम्मान समर्पित करने के लिए वर्ष दर वर्ष।
मनोभिराम मेघ घना होकर हो जाता है आसमान में फना।
झुलसा माटी,फुंफकारता हुआ मेरे वक्ष पर होता है आ खड़ा।
सूखे खेत के दरारों से होता है प्रकट मेरे जनाजे का जुलुस
अपने सर्जक को देता हूँ बाँझ श्राप मैं अशक्त पड़ा-पड़ा।
चिट्ठीयों में दरकता हुआ वेद और विज्ञान खुजाता है सिर।
सूरज के मेरे रौशनी में झांक जाता है स्तब्ध अँधेरा घिर।
उफनती नदियों का जल पी जाने को कटिबद्ध महासागर
मेरे शत्रु की श्रेणी में मुझे चिढ़ाता खड़ा हो रहा स्थिर।
जंगलों से निकल समाजिकता को प्रेरित करनेवाला पुरोधा
इतना मौन है कि मौन भी है अचंभित और क्रोधित।
यजमान यज्ञ हेतु सजा-धजा यज्ञशाला से विरक्त होता हुआ
कुल्हाड़ियाँ लिए समाजिकता त्यागने को लोहित व योजित।
असाध्य मानसिक द्वंद्व में विकल यमराज निहारता मुझे
मेरे दीर्घ आयु को अदीर्घ करने से घबराया।
ब्रह्मा से प्रश्नों और जिज्ञासाओं का अम्बार प्रेषित करता
बदलने को कहता अकाल मृत्यु की परिभाषा।
शुन्य सा देह तो क्या? आत्मा पूर्वार्जित कर्म से है सुगठित
एक लम्बे अन्तराल तक होते रहने का दम्भ पाले।
यम देहात्मवादी नहीं है धर्म का दंड उठाये वह
किंकर्तव्यमूढ़ विधि के विधान तोड़ कैसे मुझे उठा ले।
मैं मृत हूँ या जीवित?मेरा मन बहुत बड़े संशय में है।
वरदान में व्यस्त दैवत्य मेरे लिए वेदना का पर्याय है।
मेरे रुधिर पर मेरा ही अधिकार नहीं रहा कभी,हर कतरे ने
श्वेद के लिए स्ववध कर मेरे ही साथ किया सर्वदा अन्याय है।
मेरे हर फ़िक्र की कुंडली में राहू संचालक की भूमिका में
और शनि तुम्हारे जैसे ही वक्र किये द्दृष्टि,विराजमान है।
मेरे सारे तारे उदास हैं ध्रुव तारे सा अचल।
गुरु का शोषण और शासन से दोस्ती मेरा अपमान है।
सिर पर छत नहीं तो क्या! और बदन पर वस्त्र नहीं तो क्या!
अर्धनग्न इस देह पर बिलख-बिलख कर प्रकृति रहा है हारता।
मैं धरती की सन्तान धरती में समाऊंगा।
चाहे बिगाड़ ले मेरा चेहरा जितना मैं किसी से नहीं हारता।
मेरा मनोबल मेरे भूख से लड़कर हारता रहा है श्रम के बिखरने से नहीं।
जंगल में घास भी जल-भुन जाता है मेरा हश्र देख।
स्वर्ग से आयातित मेरा वजूद नारकीय काया में परिवर्तित हुआ
रोता है कभी का मेरा वन्य-मित्र सिंह मेरा आदर्श देख।
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राजप्रासाद में मेरा साक्षात्कार लेते हुए मत पूछो कि
मैं कौन हूँ?
हर कृपा पाने का चाहे दैवीय हो या मानवीय,युगों-युगों से आकांक्षी-
मैं किसान हूँ।
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