कौन कहता है
कौन कहता है
कौन कहता है जिन्दगी अब सिसकती साँसों का हो गयी है नाम
वक़्त के समंदर में कोशिशों की नाव चलाकर तो देख |
कौन कहता है होठों से , अब खो गयी है मुस्कान
गुलशन में खुशबुओं से भरपूर , दो फूल खिलाकर तो देख |
कौन कहता है जिन्दगी अनजाने डर का हो गयी है समंदर
अपने आसपास के चरित्रों से , एक बार खुशनुमा रिश्ता बनाकर तो देख |
कौन कहता है जिन्दगी की शाम अब ढलने को है
अपने प्रयासों से किसी की अँधेरी जिन्दगी में उजाला करके तो देख |
कौन कहता है रिश्तों में अब वो पहले की सी बात नहीं
खुद को किसी अनाथ की जिन्दगी का हिस्सा बना के तो देख |
कौन कहता है जिन्दगी अवसरवादिता का होकर रह गयी है पर्याय
चंद पल इंसानियत की राह पर निसार करके तो देख |
कौन कहता है गुलशन में अब वो पहले सी बहार न रही
इसी गुलशन में , चंद फूल कोमल मुस्कान के खिलाकर तो देख |
कौन कहता है आज का मानव वो पहले सा मानव न रहा
चंद कदम मानवता की राह पर बढ़ाकर तो देख |
कौन कहता है खुशनुमा पलों के अभाव में गुजर रही है जिन्दगी
किसी पालने के शिशु की मुस्कराहट को एक बार निहार के तो देख |
कौन कहता है जिन्दगी स्वयं के अस्तित्व को लेकर है परेशां
जिन्दगी के कुछ पल आध्यात्मिकता पर लुटाकर तो देख |
कौन कहता है जिन्दगी अब सिसकती साँसों का हो गयी है नाम
वक़्त के समंदर में कोशिशों की नाव चलाकर तो देख |
कौन कहता है होठों से , अब खो गयी है मुस्कान
गुलशन में खुशबुओं से भरपूर , दो फूल खिलाकर तो देख ||