कोहरे की घनी चादर तले, कुछ सपनों की गर्माहट है।
कोहरे की घनी चादर तले, कुछ सपनों की गर्माहट है,
ठहरी हुई इस सुबह में कहीं, फिर से हुई कुछ आहट है।
धड़कनों के धीमे शोर में, बातों की नयी सी गुनगुनाहट है,
कोरे ख्यालों की बेहोशी में, किसने कर दी ये मिलावट है।
साहिलों पर तन्हाई कहाँ है, लहरों से जो होती टकराहट है,
सीपीयां यादों की मुट्ठी में भरी हैं, फिर क्यों हो रही घबराहट है।
नए रंगों की शाम सजी है, चाहतों की बेपरवाह बुलाहट है,
इज़ाज़तों की चिठ्ठियाँ पड़ी हैं, पर नसों में बहता इश्क़ हीं रुकावट है।
उम्मीदों के उधेड़े धागों की, क्या हो सकती नयी बुनाहट है,
आँखों में उमर रहे हैं बादल या, मौसमी बरसात की खटखटाहट है।
पिघलेंगें जज्बात साँसों में, जिनपर बरसों की बर्फ़ीली जमावट है,
अंगीठियों में ख़्वाहिशें तपी हैं, होठों पर राख बनी मुस्कराहट है।
नींदें जागी हैं किस्तों में, क़दमों में ठहरी सी थकावट है,
एक साथ का ये धुंआ-धुंआ सा है, या मृगतृष्णा की दिखावट है।
ज़िन्दगी की बेबस आँधियों में, एक लिहाफ़ की फुसफुसाहट है,
एकांत कमरे की शाश्वत निःशब्दिता में, मासूमियत की हुई तुतलाहट है।