कोरा रंग
लाख रंग फैले हैं फ़िज़ाओं में, पर रंग मुझपर कोई चढ़ता नहीं है,
तेरे कोरे रंग में रंगी हूँ इस तरह, की रंग मुझपर से तेरा उतरता नहीं है।
तन को छूते गुलाल आज भी, पर रंग कोई मन पर आकर ठहरता नहीं है,
सुनाई देती है, फाल्गुन के गीतों की गुंजन, पर संगीत विरह का थमता नहीं है।
सजती है मिठाईयों की थाल वैसी हीं , पर चमक मेरे चेहरे का अब दिखता नहीं है,
मदहोशी में डगमगाते है दुनिया के कदम, पर थमी सी दुनिया का दर्द, मेरा मिटता नहीं है।
वो कृष्णा आज भी खेले है, वृन्दावन में होली, पर यूँ रूठा सखा मेरा, कि अब मिलता नहीं है।
ठिठोलियाँ चूमती हैं, हर घर के दर को, पर इंतज़ार ऐसा आया तेरा, कि ढलता नहीं है।
झूमता है बसंत, फूलों में आज भी, पर अब तेरा गुलाब, किताबों में मेरी खिलता नहीं है,
बहाने मुलाक़ातों के बनते हैं अब भी, पर तू है कि साथ मेरे अब चलता नहीं है।
उस मणिकर्णिका के घाट पर, जला तू इस तरह, कि वो मंजर आँखों से मेरी पिघलता नहीं है,
रंग छीन गए सारे सपनों के मेरे, बस ये रंग कोरा है जो मुझसे बिछड़ता नहीं है।