कुछ स्मृति विस्मृति के पार
कुछ स्मृति विस्मृति के पार
मन जोहे है उनकी बाट
कुछ मीठी सी कुछ तीखी सी
कुछ संग अपने है अविराम ।
समय नहीं रुकता पल भर भी
उसके पथ न तनिक विराम
मेरे संग कर्मों की गठरी
पग न बढ़ेंगे बिन विश्राम ।
मैं बैठी सुस्ताने को जब
गठरी से बिखरी कुछ यादें
कर्म मेरे अंकित थे जिसमें
एक एक कर आगे आते ।
मेरी स्मृति ने धीरे से
समय चक्र को पीछे मोड़ा
मैं क्या थी कैसी थी तब ?
इन बातों से नाता जोड़ा ।
कुछ चंचल कुछ जिद्दी सी
घूम रही छवि नयनों में
थाती विश्वास की भरे हुए
दृढ़ थी निज संकल्पों में ।
पापा की वो प्यारी बिटिया
पापा सा ही बनना चाहे
कितने भी दुष्चक्र मिलें
वो पीछे हटना न जाने ।
पर मैं अब वो नहीं रही
सब कुछ ही मैं सह जाती हूं
जैसा चाहा जिसने मुझसे
वैसे ही ढल जाती हूं ।
मै मुझमें अब शेष कहां
मिथ्या का भी प्रतिकार नही
कर्तव्यों से नहीं डिगूं
इससे ज्यादा दरकार नहीं ।