कुछ शामें गुज़रती नहीं… (काव्य)
कुछ लंबी शामें सिरहाने पड़ी…
बीतने का नाम न ले रहीं।
कुछ दबी शिकायतें अनकही,
कुछ रूठी सदाएँ अनसुनी।
एक दुनिया को कहते थे सगी,
हमारे मखौल से उसकी महफ़िलें सजने लगी।
ज़ख्म रिसते हैं,
मर्ज़ की बात नहीं….
सब तो मालूम है,
पर कुछ हाथ नहीं!
जवाब तैयार रखे थे,
सवालों की बिसात नहीं।
इतने सपनों को ठगने वाली…
इस रात की सुबह नहीं।
खैर. .फिर कभी ये दौर याद करेंगे,
गुमसुम हालातों से बात करेंगे…
कभी चलना सिखाया था दुनिया को. ..
फिर कभी इसकी रफ़्तार में साथ चलेंगे।
जय हिंद!
#ज़हन